पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५६७

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अन्वञ्चर रहेगा। इसका विराम काल प्रायः समझ नहीं पड़ता। अन्यान्य इन्द्रियको अपेक्षा इसमें अन्तके अधिक विकृत होनेसे इसका नाम अन्त्रज्वर रखा गया है। हमारे देशमें सचराचर इसे त्रिदोषजनित सान्निपातिक विकार बताते हैं। किन्तु प्रकृत पक्ष पर, असली अन्वज्वर भारतवर्ष में अति विरल होगा। मलेरिया- जनित स्वल्प विराम ज्वरके साथ कठिन उदरामय होनेसे, किसी-किसी स्थलमें टाइफयेड ज्वरका कितना ही उपसर्ग उठता है। अनेक स्थलमें यह ज्वर एकबारगी ही देख नहीं पड़ता। पौड़ाका लक्षणादि झलकनेसे पहले शरीर उदास हो जाता और बेचैनी बढ़ती है। अच्छी क्षुधा न लगे, आहारमें अरुचि आये और भाजनपर बैठनेसे जी मिचलायेगा। किसी दिन प्रातःकाल पित्त एवं अम्ल-जल वमन हो जाता है। मन सर्वदा ही असुख रहे, किसी काम करनेमें उद्यम न होगा। रातको नोंद नहीं लगती; अल्प निद्राका आवेग आते भी रोगी स्वप्न देख चौंक पड़ता है। कभी-कभी नाकसे रक्त बहे और पहले ही अल्प-अल्प उदरामय उठेगा। कटिदेश और हस्त- पदको ग्रन्थि तपकने लगती है। रोगी लेटनेसे उठना नहीं चाहता और उठनेसे बैठ नहीं सकता ; ऐसी अवस्थामें पांच-सात दिन बीत जायेंगे। किसी-किसी स्थल में यह सकल लक्षण कुछ भी देख नहीं पड़ते। रीगो केवल असुखो और अस्वस्थ रहेगा। पूछनेसे वह अपनी पौड़ाकी बात कुछ भी बता नहीं सकता। डाकर बड् कहते, कि उस अवस्थामें रोगी १०से १४ दिन पर्यन्त रह सकेगा। डाकर फूिण्टके मतसे उस अवस्थामें १० दिन ही जौनको सम्भावना है। इस सकल लक्षणके बाद ज्वर आता है। रात्रि कालमें देहका सन्ताप तेज़ पड़ जायेगा। तीन-चार दिन पीछे जिह्वाके नीचे तापमान-यन्त्र लगानेसे १०३, १०४• एवं अत्यन्त कठिन अवस्थामें १०५. पर्यन्त ताप चढ़ता है। रोगौ गात्रदाहसे सर्वदा करवट बदलता, किसौसे आराम मालूम नहीं होता। पिपासासे मुख 141 सूखता, छाती फटती है। सुशीतल जल, बरफ प्रभृति स्निग्ध द्रव्य के प्रयोगसे भी तृष्णा नहीं मिटती। प्रातःकाल देहका ताप कुछ घटता और रातको बढ़ जाता है। मृत्युकाल आ पहुचनेपर प्रातःकाल १०६ से १०८० पर्यन्त सन्ताप बढ़ेगा। डाकर वोयाण्डालिक्ने तापमानयन्त्रद्वारा पीड़ाका शुभाशुभ फल निश्चित ठहरानेको कई उपदेश दिये हैं। अकस्मात् सन्ताप बढ़ जानेसे समझना पड़ेगा कि, शरीरके किस भाभ्यन्तरिक यन्त्रमें प्रदाह उठता है। दूसरी पौड़ाके विद्यमान रहते यदि देहका ताप घटे, तो भी अतिशय कुलक्षण समझना चाहिये। अन्वसे रक्तस्राव होने के पहले अनेक स्थलमें शरीरका ताप घट जायेगा। प्रथम रोगीको मानसिक अवस्थाका विशेष कोई व्यतिक्रम नहीं पड़ता। आदिमें कपालके सम्मुख अल्प-अल्प वेदना उठती एवं चित्त कुछ चञ्चल हो जाता है। उसके बाद रोगो सदा अन्यमनस्क ज्ञान बना रहता, किन्तु कोई बात पूछनेसे वह तत्क्षणात् उसका उत्तर नहीं निकालता। उत्तर देते हुए भी कोई न कोई गलत बात सुना देता है। ऊपरको अवस्था देखनसे अनुमान होता है, मानो रोगो कुछ नहीं सुनता ; जो सुनता, उसका भी मानो अर्थ नहीं समझता। अन्त में ८।१० दिन, किसो-किसी स्थलमें १३।१४ दिनको पीड़ा उत्कट हो जानसे अतिशय प्रलाप बढ़ेगा। रोगी शय्यापर पुनः-पुनः ज़ोर लगा उठ बैठता और भागना चाहता है। कभी हंस, कभा रो और कभौ अातङ्कसे रोगी चिल्ला उठेगा। मृतव्यक्ति को वह सम्मुख देखता, मृतव्यक्तिका नाम ले पुकारता, मृतव्यक्ति के साथ जाना भी चाहता; मानो वह उसके पास चले जाते हों। फिर कभी कभी उसके मनमें मृत्युको आशङ्का आतौ ; कभी घर जानेको यादसे मोहमैं डूब जाता है। दो-तीन दिनके भीतर मुखमण्डलपर कोई स्पष्ट परिवर्तन नहीं होता। उसके बाद गाल चमकदार और लाल हो जायेंगे। विशेषतः इस ज्वरके साथ ।