पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५७

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अक्षरलिपि ५५ आर्यसन्तान जो “श्रुति” धारण कर भारतमें घुसे थे, तीन अक्षर और जगतीका एक अक्षर हुआ। वहौ [आर्य शब्द देखो। ] उसी ऋक्संहितामें (१०।७१।४) हमें अष्टाक्षरा गायत्री प्रातःसवनने निर्वाह की थी, किन्तु ऐसे मन्त्र मिलते हैं,- वाक्षरा त्रिष्टुप् माध्यन्दिन-सवन निर्वाह न कर "उत त्वः पश्यन् न ददर्श वाचमुत त्व: शखन् न शणोत्ये नाम् । सके। गायत्रीने उनसे कहा, मैं आती है, इस जगह उतो त्वस्मै तन्व वि सस्र जायेव पत्य उशती सुवासाः॥" मुझे भी स्थान मिले। त्रिष्टुपने कहा, यही होगा; इस कहे हुए ऋक्का भावार्थ यह है-कोई-कोई फिर भी, तुम मुझे उह्नों आठ अक्षरों में मिला लो। लोग वाक्यको देखकर भी नहीं देखते हैं। फिर, दूसरे गायत्रीने ऐसा ही हो कहकर उन्हें आठ अक्षरोंमें लोग वाक्य सुनकर भी कान नहीं देते । कुछ लोगों के मिला लिया। इसके बाद माध्यन्दिन-सवनमें मरुत्व- सुननेपर भी उनके सामने वाक्य बिना सुने जैसे रहते हैं, तीय शस्त्रके जो दो उत्तरवर्तीय प्रतिपत् और जो अनु- यानी सुनकर भी वह समझ नहीं सकते। कामयमाना चर हैं, वह गायत्रोको दिये गये। त्रिष्ट प्न भी एका- रमणी शोभनवस्त्रादिसे विभूषित हो अपने पतिको जैसे दशाक्षरा हो माध्यन्दिन-सवन निवाह किया। ऐतरेय- देह समर्पण करती है, वाक्य भी वैसे हो (पूर्वोक्त) ब्राह्मणके दूसरे स्थल में भो (१।१।५) देखा जाता है- सिवा दो प्रकारवाले लोगोंके अन्य एक प्रकारके लोगों- "अनुष्टुभौ वर्गकामः कुर्वीत योर्वा अनुष्टुभोश्चतुःषष्टिरक्षराणि।" को ही अपने अङ्ग समर्पण करता है। जो स्वर्ग जाने की इच्छा रखता हो, उसे दो अनु- उद्धृत प्रमाणमें मन्त्रके दर्शन, श्रवण और मूर्ति ष्टुभ् व्यवहार करना चाहिये। दो अनुष्टुभूमें ६४ परिग्रहसे क्या हम नहीं समझ सकते, कि अज्ञ, विज्ञ अक्षर होते हैं, और मन्त्रसिद्ध यही तीन प्रकारके पाठक थे, और "हाविशदक्षरानुष्ट प् चत्वारोऽष्टाक्षराः समाः ।" (ऋक् प्रा० १६०२७) इसोके साथ दर्शनको विषयीभूत श्रुति और मन्त्रमूर्ति अर्थात् प्रति पादमें आठ अक्षरके हिसाबसे चार या मूर्ति विशिष्ट लिपि इन तीनोका हो आभास पाया पादमें बत्तीस अक्षर होनेपर अनुष्टुप् छन्द बनता है जाता है ? कोई अक्षर या चिन्ह न होनेसे वाक्य कैसे ऐतरेय ब्राह्मणके दूसरे स्थानमें भी लिखा है- देखा जा सकता है ? संहिताका अर्थ ब्राह्मणमें कितना "तेभ्योऽभितस्त भ्यस्त्रधी वा अजायन्त अकार: उकारः मकारः इति हो स्पष्ट कर दिया गया है। ऋग्वेदके ऐतरेयब्राह्मण- तानेकधा समभवत् तदेतत् ओमिति।" में (३।३।४) लिखा है:- यानी उसके भीतर तीन वर्ण उत्पन्न हुए-अकार, "ते वा इमे इतर छन्दसी गायत्री मभ्यवदतां वित्तं नवाक्षराण्यनु पर्या- उकार और मकार ; इन्हीं तीनोंके एकमें मिलने से गुरिति नेत्यब्रवौद् गायत्री यथावित्त मैव न इति ते देवेषु प्रश्न मैतां ते देवा ओम् बनता है। अब्रुवन् यथावित्त मेव व इति तस्मद्धाप्य तर्हि वित्यां व्याहुर्यथावित्त मैव न इति इस प्रकारको युक्तिसे अक्षर शब्दको स्पष्ट ही वर्ण- ततो अष्टाचरा गायवाभववाक्षरा विष्ट वेकाक्षरा जगती साष्टाक्षरा गायत्री वाचकता प्रतिपन्न होती है। सिवा इसके ऐतरेय- प्रातस्मवन मुदयच्छनाशनोत् विष्टुप् वाक्षरा मुद्यन्तु तां गायब ब्रबौदायान्यपि येऽवास्तुिति सा तथेत्यब्रवीत् बिष्टुप् तां वै मतैरष्टाभिरक्षरैरुपसन्धेहीति तथेति ब्राह्मणमें (१।४।४) और भी कहा गया है- ता मुप समधादतई तद्गायवै। मध्यन्दिने यन्मरुत्वतीयस्योत्तरे प्रतिपदो "द्यौरित्य तैरेवेनं तत् कामैः समईयतीति न पूर्व पटल' ।" यश्चानुचर: सैकादशाक्षरा भूत्वा माध्यन्दिनं सवन मुदयच्छन्” इत्यादि । ऋग्वेदके आखलायन-श्रौतसूत्र में भी उद्धृत यानो उन्हीं दूसरे दो छन्दों (त्रिष्टुप् और जगतो) प्रमाण मिलता है। (आश्वलायनचौ० ४।६।३) ने गायत्रीके पास पहुंच कहा, नहीं, हममें जिसने यहां पूर्व पटल' ग्रन्यांशवाची है ; इसलिये मानना जो पाया है, वही उसका रहे। इसके बाद उन्होंने पड़ेगा, कि उस अतीव प्राचीनकालमें भी ग्रन्थ-विभाग देवताओंसे जाकर प्रश्न उपस्थित किया। वही बात देव- था वृक्षत्वक् या वृक्षके बकले प्रभृति किसी चीज़- ताओंने भी कहो-तुममें जिसने जो पाया है, वह उसी पर ग्रन्थ लिखे जाते थे। का रहे। उस समय गायत्रोके आठ अक्षर, त्रिष्टुभके ऋग्वेदमें ऐसा स्पष्ट प्रमाण होते भी, केवल पाश्चात्य और