पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५८

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। अक्षरलिपि पण्डित ही नहीं ; इस देशके भी अगरेजी-पढ़े यह निःसन्देह प्रमाणित हो गया है, कि उनके समय- कितने ही अभिन्न पण्डितीको विश्वास है, कि वेद मुख में अक्षरलिपि विद्यमान थ । इतनी ही बात नहीं; मुख हो चला आया है, वैदिक युगमें लिखनेको चाल पाणिनि यह भी उल्लेख कर गये हैं, कि उनके समय- न थी। इसी कारण वेदमें लेखके उपकरण या लिपि में "शिशुक्रन्दीय" नामक एक बालबोधक पुस्तक प्रच- का कोई उल्लेख नहीं। यहांतक, कि वह कुछ भी लित थी। कहने-सुनने से वैदिक आर्योंका लिपि-व्यवहार स्वी वेदक प्रातिशाख्यकी रचना पाणिनिम पहलेको कार करने को प्रस्तुत नहीं होते। इस प्रकारको उक्ति है। ऐसे स्थलमें अन्ततः सन् ई०मं पहलेको १०वीं क्या प्रलाप वाक्य नहीं, कि जिन्होंने कई हज़ार वर्ष शताब्दिसे भी पहले प्रातिशाव्यका ममय मानना पड़ेगा। पहले नाना विषयोंमें यथेष्ट उन्नति की और इसमें वेदको विभिन्न शाखाओंक पठन-पाठनमें जो कुछ सन्देह होते, कि उस समय शिक्षा-दीक्षामें जिनका व्यतिक्रमकी सम्भावना होती थी, वही दोष करने- समकक्ष कोई था या नहीं, वह पढ़ना न जानते और के लिये प्रातिशाख्य बनाया गया। पाणिनिका सूत्र न लिख हो सकते थे, वह निरक्षर (unlettererl) थे है-“श्रदर्शन नीपः ।" ( पा १११।६) और उन्हें लिखना बिलकुल मालूम न था ? यानी किसी अक्षरक अदर्शनको लोप कहते हैं। हमने पहले ही बता दिया है, कि ऋग्वेदके लोपकै सम्बन्धपर सुप्राचीन प्रातिशाख्यमें भी समय अक्षर थे, वर्ण थे और मन्त्रमूर्ति भी कितने ही लो बहुतसे सूत्र मिलते हैं: गोंको जानी थी। शुक्लयजुर्वेद (१५।४)में लिखा है:-- "लोप उदःस्थाम्नम्भी: सकारम।" "अक्षरपङ्क्ति छन्दः पदपति कन्दः विष्टारपतिकन्दः चरोधजन्दः"। (अथचप्रातिगारव्य २०११॥ वाजमनेयमा० ४५, सायप्रा० ५।१४) इस जगह भाष्यकार महीधरने चुरोभजश्छन्दका "अन्तस्थाममनोपः।" (अथ प्रा० ॥२२प्रालि ४५, वाजमनय अर्थ यों किया है, प्राति०४१, निरोधप्राति १२२) 'क्षुर विलेखन-खननयोः क्षुरति विलिखति व्यानोति समिति' । वेद केवल थोतव्य होनस लोपको मार्थकता कभी यानी तुरका अर्थ विलेखन और खनन है। विले- नहीं होती। इसके बाद रफका प्रयोग होता है। खन और खनन द्वारा अक्षरबद्ध जो छन्द भ्राजमान या ऋक्, यजुः, अथर्व प्रभृति मभी प्रातिशायमि रैफका प्रकाशित होता है, उसे क्षुरभजश्छन्द कहते हैं। इस नियोग और रेफर्क पर व्यञ्जनका हित्वविधान बताया क्षुरभ्रज शब्दको देख क्या मनमें नहीं आता, कि इस गया है। (ऋक्प्राति० १५, वाजमनयप्रा० १।१०४, समय उड़ीसेमें खन्ती नामक जैसी शुरशलाका होती अथवा प्रा० ११५८) है, वैदिककालमें वैसी ही लिखन को कोई लेखनी पुष्पऋषि-प्रणोत मामप्रातिशाग्य में भी ऐसे ही थी और कलमस छन्द लिखे जाते और वैदिक आर्य लोप, रेफ और अवग्रहकी बात पाई जाती है। किसी प्रकारको अक्षरलिपिका व्यवहार जानते थे ? वेद यदि कैवल थ तिमं पर्यवसित रहता, तो ऐसा पाश्चात्य पण्डित वेदके निरुक्त और प्रातिशाख्यको नियम विहित होनका कोई कारण न था, कि व दमें बुद्धदेवका पूर्ववर्ती यानी सन् ई०से पहलेको ६ठी रैफ, अवग्रहका प्रयोग और लोप कहां होगा, और शताब्दिका ग्रन्थ मानते हैं। किन्तु निरुक्तसे पहले द्वित्व कहां किया जायगा। पाणिनि विद्यमान थे; कारण, निरुक्तकार यास्कने तैत्तिरीयसंहिताम देखते हैं, कि उमी बहुत पुराने पाणिनिका मत उद्धृत किया है। पाणिनि देखो। पाणिनिने लिपि, लिवि, लिपिकर, ग्रन्थ, वर्ण, समयमें व्याकरण बनाया गया था, और इन्द्र ही सबसे पहले शाब्दिक थे। यथा- अक्षर प्रभृति जो बहुतसे शब्द प्रयोग किये हैं, उनसे- “वाक् व पराची अव्याकृता अवदत् । ते देवा अब्रुवन् इमां नो वाचं

  • Isaac Taylor's Alphabet Vol. I. p. 2-3.

व्याकुरु । सोऽब्रवीत् वरं वर्णमह्य चेष वायाव च सह रहता इति। तस्मादैन्द्र- 1