पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५९

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अक्षरलिपि 2 वायवः सह्यात । तामिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरीत्। तस्मादियं व्याकृता वाग- द्यते तदेतदव्याकरणस्य व्याकरणत्व॥" * भावार्थ यों है-पुरातनी वाक् यानी वेदरूप वाक्य पहले मेघगर्जनकी तरह अखण्डाकार आविर्भूत था। यह कोई समझता न था, कि उसमें कितना वाक् और कितना पद है। तब देवताओंन वाक्यप्रकाश करनेकी प्रार्थना की। इन्द्र ने वेदरूप वाक्यको बीचसे तोड़कर वाक्य, पद और प्रत्येक पदको प्रकृतिको स्पष्ट किया था। वाक्य, पद और पदके अन्तर्गत प्रकृति-प्रत्ययनिष्पन्न शब्दको विशेष रूपसे व्यक्त करना- ही व्याकरणका काम है। जिस समय व्याकरण था, उस समय वर्णलिपि होनेकी ही बात है। वेदसे और भी दो-एक प्रमाण उद्धृतकर दिखाये देते हैं- "एका च दश च दश च शतञ्च शतञ्च सहस्रञ्च सहस्र चायुतञ्च चायुतं च नियुतञ्च नियुतञ्च प्रयुतं चार्च दञ्च न्यर्बुद' च समुद्रश्च मध्यं चान्तय पराईय।" ( वाजसनेय-संहिता १७॥२) । पराई संख्या समझाने में केवल श्रुतिका साहाय्य लेनेसे काम न चलेगा, वरं अङ्कपात करके दिखाना पण्डित इत्सिङ्गने भारत आ और अपनी आंखों देख- भालकर भी ऐसे वेदाध्ययनको बात क्यों न लिखी ? नियम ऐसा ही था, कि धर्मशास्त्र गुरुमुखसे सुनकर शिष्य कण्ठस्थ करेगा। केवल वेद होकी बात नहीं, इतिसिङ्गका विवरण पढ़ने से हम जान सकते हैं, कि बौद्ध-समाजमें भी इसी तरह धर्मग्रन्थ गुरुमुख- से सुन कर कण्ठस्थ करनेकी रीति थी। पढ़ने और पढ़ाने की चाल ऐसी रहते भी इसका प्रमाण मिलता है, कि वेद लिपिबद्ध होते या लिखे जाते थे। वेदके निरुक्तकार यास्कने लिखा है,- "साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुस्ते ऽवरोभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उप- देशेन मन्त्रान् सम्प्रादुपर्दशाय ग्लायन्तोऽवर बिल्मग्रहणायम ग्रन्थं समानासिषु- वेंदच वेदाङ्गानि च ॥" (निरुक्त १।६।५) जिन्होंने धर्मका साक्षात्कार या दर्शनलाभ किया है, वही सब ऋषि हैं, जिन्होंने धर्मका साक्षात्कार लाभ न किया यानी श्रुतर्षिवालोंको उपदेश द्वारा मन्त्र प्रदान किये, वही श्रुतर्षि हैं। श्रुतर्षियोंने उपाध्याय रूपसे उपदेश हारा 'ग्रन्थतः' और 'अर्थतः' मन्त्रोंकी शिक्षा प्रदान की थी। उन्होंने फिर, शिष्यको अर्थ- ग्रहणमें असमर्थ देख और इससे खिन्न हो समझानेके लिये यह ‘ग्रन्थ' (निघण्टु), वेद और वेदाङ्ग सङ्कलन किया। किसके द्वारा वह वेद वेदाङ्ग सङ्कलित हुआ ? इस विषयमें निरुक्तटीकाकार दुर्गाचार्यने लिखा है,- "मुखग्रहणाय व्यासेन समानातवन्तः। ते एकविंशतिधा बाहच्च म् । एकशतधा प्राध्यय्येवम्, सहस्रधा सामवेदम् । नवधा पाथर्वणम् । वेदाङ्गान्यपि । तयथा, व्याकरणमष्टधा, निरुक्त' चतुर्दशधा इत्येवमादि। एवं समाचा- सिधुदैन ग्रहणार्थम् । कथं नाम ? भिन्नान्येतानि शाखान्तराणि लवूनि मुख Zल्लीपुरते शक्तिहीना अल्पायुषो मनुष्याः,-इत्ये वमर्थ' समानासिषु रिति”। सहजबोध्य होने के लिये व्याससे उन्होंने वेद सङ्कलन कराये। ( उनमें ) बहुऋक्युक्त ऋग्वेद २१शाखा, अध्वर्यु के कार्यसे सम्बन्ध रखनेवाला यजु- र्वेद १०१ शाखा, सामवेद १००० शाखा और अथर्ववेद ८ शाखामें विभक्त हुआ। वेदाङ्ग भी इसी तरह बांटा गया था, जैसे-व्याकरण ८ भाग, निरुक्त १४ भाग। ऐसे सङ्कलनका क्या कारण है? इस होगा। "यं सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः । अवयस्तमन्वविन्दन् नान्ये अशक वन् ॥” (ऋक्संहिता ५१४०1८) मतलब यह है, कि असुर राहु अपनी छायासे सूर्यको जो विद्ध करता है, वह वेध अत्रियोंको हो मालूम था, दूसरे ऋषि उसे जान न सके। पूर्वोक्त ऋकसे सहजमें ही समझ पड़ेगा, कि अत्रि ही ग्रहण-गणनाके आदि गुरु हैं। हमारी बुद्धि यहांतक नहीं पहुंच सकती, कि ग्रहवेध मुख-मुखसे हो सकता है। ऊपर कहे हुए प्रमाणसे वैदिक युगमें यदि अक्षर- लिपिको विद्यमानता स्वीकार की जाये, तो गुरुमुखसे सुनकर मुख-मुख वेदाभ्यास करने का नियम क्यों रहा है ? इस तरह, कि सन् ई०को ८वीं शताब्दिमें चीन-

  • 'अस्व पराचौ पुरातनी वाल वेदरूपिणौ अव्याकृता मेघस्तनितवद

खण्डाकारा अविदितपदवाक्यप्रभेदेति यावत् : तामिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य विच्छिन्न एतावदिद' वाक्य' वाक्ये चैतानि पदानि पर्दषु चैताः प्रकृतयः एते च प्रत्यया इत्ये वमवक्रमणं अखण्ड या वाची विभेदनं कृत्वेत्यादि (सायणभाष्य)

  • Max Müller's India, what can it teach 11s ? p. 311.

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