पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६०

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किया था। अक्षरलिपि तरहको अलग-अलग और छोटी छोटी-शाखा सहजमें अब हम निःसन्देह दखत हैं, कि अति पूर्वकाल- ही शक्तिहीन और अल्पायु मनुष्य ग्रहण कर सकेगा।* से हो थुति और धम्मशास्त्र लिपिबद्ध पार गन्थ' कहे महाभारतके यह कई वचन पढ़कर फिर किसीको जाकर परिचित हात चले आते हैं। इमाम मनुसंहिता इस बातमें सन्देह न रहेगा, कि वेद ग्रन्थोंमें लिपिबद्ध (७।४३)का टोकामं कुल्लूकभट्टने लिखा ह- होते थे- "विवदाम्पाचया, लाना indi" "बदतदुक्तं भवता बंदशाम्बनिदर्शनं । रघुनन्दनने भा अहम्पतिका प्राचान वचन उद्धृत एवमेतद्यया चैतन्निग्रहणाति तथा भवान् ॥ किया है,- धार्थते हि त्वया ग्रन्थ उभर्याव्व दशास्वधाः। "बामसिपि मम मानिनन। न च ग्रन्थस तत्त्वनी यथा तत्त्वं नरश्वर ॥ चावासामधान पसार ) यो हि वेद च शास्त्रे च ग्रन्थधारणतत्परः । भारं स बहते तस्य ग्रन्थव्यर्थ न वेत्ति यः ॥ अर्थात् छः महान के बाद लोग भूल जात हैं, यस्तु ग्रन्थार्थतत्वज्ञो नास्थ ग्रन्थागमो बथा।" इसौमे विधाताने पुराकानमें अक्षर बना पत्रनिबद्ध (शान्तिपब ३०००११-१४) (वशिष्ठ जनकको सम्बोधन कर कहते हैं) आपन इमका भी प्रमाण पाया गया है, कि बहुत पुरान वेद और धर्मशास्त्रका जो यह निदशन कहा, और समयम हो भारतमं मम्भ्रान्त स्त्री-पुरुप दानी हा अक्षर मनही मन जो धारणा को, वह ऐसो हो है यानी लिपिका अभ्याम करते रहे हैं। पालीकि रामायण ठीक नहीं। आपने वेद और धर्मशास्त्र दोनोही ग्रन्थ पढ़नम जाना जा सकता है, कि मावन महावीर पढ़े, किन्तु उनका यथावत् अर्थ न समझ सके । जो हनुमान्ने अशोकवनमें पहुंच माता को देखा और व्यक्ति वेद और धर्मशास्त्र ग्रन्थ पढ़ने में अनुरुक्त हो, अपना और गमका परिचय देकर भा जब वह उनका तत्त्व यथावत् समझ न सका, उसका ग्रन्थ अभ्याम मोताका मन्दह दूर न कर मकं, तब उन्होंन माताको किसी कामका नहीं। जो ग्रन्थका अर्थ भली-भांति विश्वास दिनानक लिय रामनामाशित एक अंगूठी ग्रहण न कर सका, उसके पक्षमें ग्रन्थका भार-बहन हो निकाल कर दिखाई थी। सार है। फिर, जो ग्रन्थका अर्थ यथारूपसे लगा सकता "वानामनामागताग। है, उसका अभ्यास विफल नहीं होता। रामनामा सनद पद नाम: मन्दरकाम:२६२) उद्धृत श्लोक प्रक्षिप्त बताकर नहीं उड़ाया जा

  • साक्षात्कृतो वैधभः साक्षाद्दष्टः प्रतिविशिष्टन तपसा । त भ माचात-

मकता ; कारण, मभी पुराने टीकाकागन इम लोक- कृतधर्माणः । के पुनस्त इति। उच्यते-ऋषयः, ऋषन्ति अमुग्मात् कर्मण को प्रतिष्ठित किया है। रामनामाङ्गित अगृठीपर हो एवमर्थवता मन्त्र गण संयुक्नादमुना प्रकारणवलक्षणफलविपरिणामी भवतापयः । ऋषिदर्शनादिति वक्ष्यति । तदेतत् कर्म गणाः फलविपरिणामदर्शनमौपचारिकया मुन्दरकागड़की भित्ति स्थापित है। इमलिय मानना इत्तीक्त साक्षात्कृतधर्माण इति। न हि धर्मस्य दर्शनमन्ति; अन्यन्तापूाहि पड़ेगा, कि यह श्लोक खाम वा वाकिका बनाया धर्मः । आह-किं तेषामिति उच्यते-तेऽवरभ्योऽसाक्षात्कृतधम्म भ्य उपदेशन है। तैत्तिरीय प्रातिशाख्यमूवमें पृर्वतन आचाव्यरूपम मन्त्रान्त सम्प्रादुः । ते ये साक्षात्कृतधर्माणस्तेऽवरभ्योऽवर कालोनभ्यः शक्ति- बाल्मीकिका नाम रखा गया है। राम स्थनमें इमका होनभ्य: अतर्षि भ्यः । तेषां हि श्रुत्वा ततः पयादृषित्वमुपजायते न यथा पूर्वेषां स्पष्ट आभास मिलता है, कि बाह्याकिक ममय यानी साक्षात्कृतधर्मणां श्रवणमन्तरेनैव । आह-किं तेभ्य इति । तेऽवरभ्य उप- देशन शिष्योपाध्यायिकया वृत्या मन्त्रात् ग्रन्थतोऽर्थतय सम्प्रादः सम्प्रदत्तवन्तः । वैदिक युगर्क अन्तिम भागमं कभम कम मन् ई०से पहलेको १०वीं शताब्दिम पहले भारतको शिक्षित तेऽपि चोपदेशेनेव जगृहुः । ...उपदेशाय उपदेशार्थ । कथं नाम उपदिश्यमानमते शक्क युग्रहीतुमित्य तमधिकृत्य ग्लायन्त: खिद्यमानास्तष्वनु- स्त्रियांको भी अक्षरलिपिका ज्ञान था। यह लिखना गृहन्ति तदनुकम्पया तेषामायुषः सोचमवेचा कालानुरुपाञ्च ग्रहणशक्तिम् इस जगह आवश्यक नहीं, कि बहुत पुराने वैदिक विल्यग्रहणायम ग्रन्थ गवादिदेवपबान्त समाचातवन्तः । किमेतमेव नेताच्यते।" युगसे ही भारतमें स्त्रीशिक्षा प्रचलित था। इसलिये इस