पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६०४

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जाती हैं। अन्नपूर्णा-अन्नभक्त इन देवीने अन्न दिया। हमारी अन्नपूर्णा देवीको है। गारह दिनमें नामकरण, और चार मासमें पूजा चैत्रमासको शुक्लाष्टमौको होती है। रोमक निष्कमण संस्कार करना चाहिये। किन्तु अब इन लोगोंको अन्नपरेणा देवीको पूजा भी चैत्रमासमें सब क्रियाओंका चलन नहीं है। अन्नप्राशनके समय ही होती थी। बाविलनमें भी अन्न नाम्नी एक पूर्वापर यह सब संस्कार किये जाते हैं। और देवी थीं। कितनोंका तो अन्नप्राशन होता ही नहीं। ब्राह्मण अन्नपूर्णेवरी (स० स्त्री०) अन्नपूर्णा चासौ ईश्वरी होनेसे यह सब क्रिया यज्ञोपवीतके समय सम्पन्नको च। भैरवी विशेष ; शिवपत्नी; अन्नपूर्णा । अन्नपूर्वा (सं० स्त्री०) दुर्गाका एक नाम । अन्नप्राशनादि शुभ कर्मके पहले नान्दीश्राद्ध किया अनपेय (सं० पु.) वाजपेय यज्ञ। जाता है। उसके बाद मही गन्धादि द्वारा अन्नप्राशन (सं० लो०) प्रथमं अशनं प्राशनम् । अधिवास । अधिवासका विवरण दुर्गोत्सवमें देखो। मालम छठे वा पाठवें मासमें विधानपूर्वक बालकका प्रथम होता है, देहका दोष खण्डन करना एवं शरीरको अन्नभक्षण, दश संस्कारके अन्तर्गत संस्कार विशेष ; सुवासित और सुसज्जित करना हो अधिवासका अपने अपने कुलाचारके अनुसार कोई छठे और उद्देश्य है। कोई आठवें मासमें बालकका अन्नप्राशन करते हैं: अन्नप्राशनके समय यदि दांत निकल आवें, तो चलित भाषामें इसे 'पसनी' वा 'पहनी' कहते हैं। स्त्रियां उसे अमङ्गल समझती हैं। इसीसे अन्नप्राशन- “षष्ठे ऽन्नप्राशन' मासि च ड़ा का• यथाकुलम् ॥ के समय बच्चे से कुत्ते के गलेमें फूलोंको माला पहना एवमैनः शम याति वीजगर्भसमुद्भवम् ।” (याज्ञवल्का ०१२) कर वह दोष निवारण कर दिया जाता है। यह छः महीनेमें सन्तानका अन्नप्राशन करना, कुला केवल स्त्रियोंका व्यवहार है और वङ्गदेशमें सर्वत्र चार क्रमसे चूड़ा संस्कार करना; इस तरह संस्कार प्रचलित भी नहीं है। कार्य करनेसे शुक्रशोणितजात पाप नष्ट हो जाता है। उसके बाद शिशुको सान कराकर उत्तम वस्त्र जिस तरह छः और आठ मासमें पुत्रके अन्न आभूषण पहनाये जाते हैं। फिर अन्नदाता लड़केको प्राशनको विधि को गई है, उसी तरह पांचवें वा गोदमें लेकर धानका लावा, कौड़ी, सन्देश मिठाई, सातवें मासमें कन्याके अन्नप्राशनका विधान है। लड्ड, पैसा आदि लुटाते लुटाते कुछ दूर जाते हैं। छः महीने में बालकका चन्द्रमा शुद्ध होनेसे रिक्ता इधर कई तरहके बाजे बजते रहते हैं। (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशौ) भिन्न तिथिमैं ; शुक्ल धानका लावा लुटानेके बाद नाना प्रकारके अन्न पक्षमें ; वुध, रवि, शुक्र, सोम, वृहस्पतिवारको; व्यञ्जन और मिष्टानसज्जित पात्रके पास बैठकर एवं अश्विनी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, | मन्त्रपाठपूर्वक बालकके हमें अन्न दिया जाता है। पुष्या, मघा, उत्तरफला नी, हस्ता, चित्रा, स्वाति, सन्तानके पिताको छोड़ मामा. अथवा और कोई विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, उत्तराषाढ़ा, श्रवणा, आत्मीय अन्न चटाता है। फिर आचमन करा देनेके धनिष्ठा, उत्तरभाद्रपद, रेवती-इन सब नक्षत्रों में उपरान्त बालकके सामने दावात, कलम, पुस्तक अन्नप्राशन विहित है। कृत्यचिन्तामणिके. मतसे आदि नानाप्रकारको वस्तु रख दी जाती हैं। लोगों- हादशी, सप्तमी, नन्दा, रिता एवं पांच पर्व अन्न का ऐसा विश्वास है, कि बच्चा पहले. जिस वस्तुमें प्राशनमें निषिद्ध हैं एवं नक्षत्रवेध अर्थात् सप्तशलाका हाथ लगाता है, उसी में उसकी आसक्ति होती है। वेध भी निषिद्ध है। अबवुभुक्षु (वि०) भूखा ; भोजनका इच्छुक । शास्त्रमें ऐसी व्यवस्था है, कि सन्तानके भूमिष्ठ| अन्नभक्त (सं० त्रि.) अन्वेन भक्तः सेवकः। अब होनेपर नाड़ी काटनेके पहले जातकर्म करना उचित देकर पाला हुआ दास ।