पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६११

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1 अन्योन्याभाव-अन्वच् पदार्थ जो अपने होमें अपना सम्बन्ध रखता है, उसे घटका भेद जिसमें है उसी पदार्थका बोध होता हैं। तादात्मा सम्बन्ध कहते हैं। जैसे घटमें घट है और घटका भेद घटमें नहीं रहता, इसलिये घटका वोध पटमें पट है, इत्यादि। नहीं होता,-घटके अन्य दण्ड, चाक आदि पदार्थोंका प्रतियोगिता-जिसका अभाव है उसे प्रतियोगी बोध होता है। कहते हैं। जैसे घटके अभावका प्रतियोगी घट और अनयोनप्राश्रय (स. त्रि०) अनमोना आश्रयति । पटके अभावका प्रतियोगी पट है। इस प्रतियोगीके आ-शि-अच् । परस्परका सहारा वा सम्बन्ध, तर्क- धर्मको प्रतियोगिता कहते हैं। नैयायिकगण किसी विशेष, एक दोष विशेष, सापेक्षज्ञान । खग्रह- कार्यविशेषको सुविधाके लिये प्रतियोगिता धर्मको सापक्षग्रहकत्व यदि खमें रहे, तो अनमोनमाश्रय दोष स्वीकार कहते हैं। होता है। अर्थात् स्त्रज्ञान करनेसे जो ज्ञान अपेक्षा एक एक पदार्थमें दूसरा पदार्थ सम्बन्धविशेषसे करता है, उसी ज्ञानके प्रति यदि पुनः स्वज्ञान अपेक्षा अवस्थिति करता है। एक प्रकारके सम्बन्धसे कोई करे, तो अनमोनमाश्रय दोष होता है, यहां खपदमें घट पदार्थ नाना स्थानों में रह नहीं सकता। जैसे पट प्रभृति किसी किसी एक पदार्थको मानकर यदि संयोग सम्बन्धसे भूतलपर घट अवस्थिति करता है। ऐसी बात कही जाय, कि,-'दण्ड-जनाको घट कहते कालमें कालिक सम्बन्धज घट अवस्थिति करता है। हैं और घट-जनाको दण्ड,' तो अनमोनमाश्रय दोष घट, निज अवयवमें समवाय सम्बन्धसे रहता है। और होता है। कारण, घट-ज्ञान करनेसे दण्डज्ञान अपनसे आप ही तादात्मा सम्बन्धसे रहता है। आवश्यक है। और दण्ड-ज्ञान करनेसे पुनर्वार 'स योगन घटो नास्ति'-ऐसी बात कहनेसे, घटमें खपदमें घटका ज्ञान अपेक्षा करता है। अथवा जो प्रतियोगिता है, वही संयोग सम्बन्धावच्छिन्न होता अभाव क्या है? भाव भिन्न। अर्थात् जो भाव है। वैसे ही, 'घटो न'-घट नहीं है, ऐसा कहनेसे नहीं है उसे ही अभाव कहते हैं। भाव क्या है ? घटके भेदरूपका अभाव समझा जाता है। इस भेदकी अभाव भिन्न। अर्थात् अभाव न होनेसे ही उसे भाव प्रतियोगिता तादात्मासम्बन्धावच्छिन्न नहीं होती। कहते हैं। इस भांति अभाव जाननेके लिये भावको कदाच अना सम्बन्धावच्छिन्न नहीं होता। एवं अना जानना चाहिये एवं भाव जाननेके लिये अभावको किसी अभावको प्रतियोगिता भी तादात्मासम्बन्धा अतएव यहां अनमोनमाश्रय दाष हुआ। वच्छिन्न नहीं होती। यदि भेदका प्रतियोगिता- | अनमोनमाश्रित (सं• त्रि.) एक दूसरेके सहारेपर। वच्छेदक तादात्मा भिन्न अना सम्बन्धमें भी हो, तो परस्परके सहारपर। घटका भेद घटमें रह सकता है। कारण, अना अन्वक्ष (सं० त्रि०) अक्षं इन्द्रियमनुगतम् । प्रत्यक्ष, सम्बन्धसे घटमें घट नहीं रहता, सुतरां उसका अभाव अनुपद, अनुगत, पश्चादगामी, साक्षात्, पीछे जाने रह सकता है। वाला, बाद। पूर्वोक्त तादात्मासम्बन्धावच्छिन्न-प्रतियोगिता जो अन्वक्षरसन्धि (सं० वी०) वेदको एक प्रकारको अभावको होती है, बहुव्रीहि अर्थमें क प्रत्ययान्त 'प्रतियोगिताक' शब्दमें उस अभावका ही बोध होता अम्वग्भाव सं० पु०) अनूचो भावः, ६-तत्। है। पौछे 'प्रतियोगिताक' इस भागके साथ 'अभाव' पश्चादगन्तृत्व, पश्चाङ्गामित्व, पश्चागमन, पौछे जाना, शब्दका कर्मधारय समास करनेसे 'प्रतियोगिताकाभाव' पद सिद्ध होता है। अन्वच् (सं० त्रि०) अनु पश्चात् अञ्चति अनु- भिन्न शब्दमें भेद जिसमें रहता है उसीका बोध अञ्च-क्तिन्। पश्चादगामी, अनुगामी, पौछे जानेवाला, होता है। जैसे 'घटभिव'-ऐसी बात कहनेसे, अनुसरण करनेवाला। 152 सन्धि। पीछे चलना।