पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अप-अपकलङ्क वाजसनेय संहिता २७॥१८ा एवं अथवंसहिता ४ाराहा) जिस समय गया है। और एक स्थानमें लिखा है, कि कवि इस विश्व में अप भर गया था, उस समय उन लोगोंका लोग विवस्वत्के एहमें अप्की उत्तम महिमा कीर्तन गर्भाधान हुआ था, और उन लोगोंने अग्निका प्रसव करें। "प्रसुव आपो महिमानमुत्तम कारवों चाति सदने विवस्वतः ।" किया था। (१०७५॥१)। और एक ऋमें अप्को भेषज एवं "ययिदापो महिना पर्यपश्यद्दच' दधाना जनयन्तीर्यज्ञम् ।" (ऋक्स हिता सकल पदार्थों का मास्वरूप कहा गया है। १०।१२१।८, तथा वाजसनेयस' २७।२६) जिन्होंने अपनी "श्रीमानमापी मानुषीरमुक्त' धात तोकाय तनयाय शयोः । महिमासे अप देख पाया था, उसमें दक्षता थी, एवं यूयं हि ठा भिषजी मालतमा विश्वस्य स्थातुर्जगतो जनिचौः ॥(६५७) उन् लोगोंने यज्ञको उत्पन्न किया था। अप (अव्य०) न पाति पा-क। उपसर्गविशेष, "आपो ह वै इदमये।” (शतपथब्रा० ११।१।६।१) पहले इस अनादर, बंश, त्याग, असाकल्य, वैरूप्य, अपकष्ट, जगत्में केवल अप था। "आपोऽग्रे विश्वमावन् गर्भ दधाना ।” वियोग, विपर्यय, विकृति, चौर्य, निर्देश, हर्ष ।२ बुरा, (अथर्ववेद ४।२।६)। पहले अपने विश्वको आवत कर ३ अधिक । ४ विरुद्ध। लिया था और उससे गर्भाधान हुआ था। अपक (सं० पु.) जल, वारि, तोय, पानी। "सोऽऽपोऽस्जत वाच एव लोकाहारीवास्थ साऽमृजत सा इदं सर्वमानोद अपकरण (स० पु०) दुराचार, अनिष्ट आचरण, यदिद' किञ्च । यदाप्नोत् तस्मादाप: यदत्वात् तस्मादाः।(शतपथब्रा० १६१८) खराब काम, बुरे तौरसे पेश आना। वाप लोकसे उन्होंने अपको सृष्टिको थी। अपकरुण (स' त्रि०) क्रूर, नृशंस, निर्दयी, बेरहम, वाक् ही उनका है। उसोको सृष्टि की गई थी। निष्ठुर, कठोर-हृदय । उसीने इस सम्पूर्ण जगत्को प्लावित किया था। सारा अपकर्म (सं० पु० ) कुकर्म, बुरा काम, पाप । जगत् प्लावित करनेके कारण ही इसका नाम अप् | अपकर्मन् ( स० क्लो०) अपकृष्टं कर्म प्रादि-सः । हुआ। इसने समस्त जगत्को आवृत किया था, दुष्कर्म, बुराकाम। (त्रि. बहुव्री० ) दुष्कर्मशील । इससे इसका नाम भाः हुआ। स्त्री-टाप् । अपकर्मा। ब्रह्माने पहले अप्को उत्पन्न किया। मनु- अपकर्तृ (सं० वि०) अप विपर्ययं करोति क्व-टच् । संहितामें भी यह बात लिखी है-अप एव ससर्जादौ । (१०८) अनिष्टकारी, बुरा काम करनेवाला, हानिकारी । स्त्री- अनवाना जातियोंका भी यही मत है। अब भी डीप-अपकर्ती। वैज्ञानिक लोग पृथिवौकी सृष्टिके सम्बन्धमें जैसी अपकर्ष (सं० पु०) अप-कष्-घञ् भावे । हीनता, अप- मौमांसा करते हैं, उससे आर्यों का मत बहुत कुछ कृष्टता, नीचे खींचना, निरादर, अपमान, बेकदरी। स्थापित होता है। किसी किसी सम्प्रदायके वैज्ञा २ आकर्षण । ३ निर्दिष्ट समयसे पूर्व कोई क्रियादि निक कहते हैं, कि पहले पृथिवी तरल और उष्ण करना। यथा एक सालके बाद सपिण्डीकरण श्राद्ध थी। उसके बाद क्रमसे इसका ऊपरी भाग कड़ा करना उचित है। किन्तु किसी कारणसे यदि एक और शीतल हो गया है। पर इसका भीतरी भाग सालके पहले इस बाचको करले तो उसे 'अपकर्ष अब भी कड़ा नहीं हुआ, पहले ही की तरह बहुत सपिण्डीकरण कहते हैं। कुछ तरल और उष्ण है। सृष्टि देखो। अपकर्षक (सं. त्रि.) अप-कष् कर्तरि खुल् । अप् शरीरको पवित्र करता है, इसीसे वैदिक अपकर्षकारक। अप-कृष्-णिच्-खुल्। जो अपकर्ष ऋषिगण इसकी पूजा करते थे। "पापो अमान्मातरः शुद्ध करे, वेइज्जती करनेवाला। अपमान करनेवाला। यन्तु।" (ऋक्स हिता १०।१७।१०)। अप माताका स्वरूप है। अपकर्षण (स' लो०) अपकर्ष देखो। वह हमलोगोंको पवित्र करें। ऋक्संहिताके दशम अपकलङ्क (सं० पु०) वह कलङ्क जो मिटाये न मण्डलके नवम सूत्र में केवल अपका ही स्तव किया मिटे, घोर कलङ्क। ।