पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६२७

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अपराजिता ८ अशनपर्णी। न परैः शत्रुभिः आ सम्यक् जिता, ३-तत्। न परा- जित पराजयो यस्याः, न बहुव्री वा। १ दुर्गा । २ ईशान कोण । ३ कोयल । ४ विजयदशमौके दिन अपराजिता दुर्गाको पूजा होती है, इसीसे विजय- दशमीका नाम अपराजिता है। ५. एक प्रकारका छन्द जिसके प्रतिचरणमें चौदह अक्षर रहते हैं, उस वृत्तका नाम अपराजिता है। "ननरसलघुगः स्खरैरपराजिता।" (वृत्त०र०) जिस वृत्तके प्रथममें दो नगण, फिर क्रमसे रगण एवं सगण, उसके बाद एक लघु और उसके बाद एक गुरु स्वर युक्त वर्ण रहता है, उसका नाम अपराजिता है। स्थाहातकः शीतलोऽपराजिताऽशनपपि ॥ (चमर) अः विष्णुः पराजितस्तुल्यवर्णतया यया ३-बहुव्रौ । अपराजिता नाम्नी लता और उसका फल । ७ जयन्तीवृक्ष। ८ खल्पफला। १० शेफाली। ११ शमौविशेष । १२ शशिनी। १३ हवुषा विशेष। १४ कौआटोटी। सचराचर हम लोग जिसको अपराजिता फल (Clitoria Pernatea ) कहते हैं, उसके यह कई पर्याय देखे जाते हैं, आस्फोता, गिरिकर्णी, विष्णु- कान्ता, गवाक्षी, अश्वखुरी, खेता, खैतभण्डा, गवा- दिनी, अद्रिकर्णी, कटभी, दधिपुष्पिका, गईभी, विष- हन्त्री, नगपर्यायकर्णी। (पर्वतके जितने प्रकारके नाम हैं, उनके साथ की जोड़ देनेसे अपराजिताका बोध होता है)। अखातादि खुरी। अपराजिताका फूल नौला और सफेद होता है। सफेद अपराजिता ही दवाके काम आती है। वैद्य- शास्त्रानुसार यह हिम, तिक्ता, नेत्रके लिये हितकर और त्रिदोष-शमताकारी है। इसका सेवन करनेसे पित्त, विषदोष, शोथ, और कण्ठरोग नष्ट होता है। युरोपीय चिकित्सक नानाप्रकारके रोगोंमें अपरा- जिता प्रयोग करते हैं। उनके मतसे इसका मूल अत्यन्त विरेचक, मूत्रकर और वमनकारक है। विलायती औषध जेलाप चूर्णके बदले में यह काममें लाया जा सकता है। उपरी (पेटफलना) और शोथ रोगमें इसके पत्ते वा मूलके फाण्टका सेवन 156 करनेसे मूत्रवृद्धि होती है, इससे शीघ्र ही शोथ कम हो जाता है। डाकर ऐन्सिलि वमन करानेके लिये इसे क्रुप् रोगमें प्रयोग करनेको व्यवस्था देते हैं। डाकर वासानसौने बङ्गाल डिस्पेन्सैटरी नामक औषध ग्रन्थमें लिखा है, कि वमन करानेके लिये अनेक स्थलों में अपराजिता प्रयोग किया गया था, किन्तु किसी रोगीको न वमन और न वमनका उद्देग ही हुआ। डाकर मुदिन् सेरिफ कहते हैं, कि मूत्राशयमें उग्रता उत्पन्न होनेपर अपराजिताका फाण्ट सेवन करनेसे विशेष उपकार होता है। युरोपमें अपराजिताके वीजका ही विशेष आदर है। इसका चूर्ण मृदुविरेचक है, इसलिये बच्चोंको भी बेखटके दिया जा सकता है। खुजली आदि चर्मरोगोंमें अपराजिताका फाण्ट लगानेसे उपकार होता है। हमारे देशमें अनेक प्रकारके रोगोंमें योगी, संन्यासी तथा और और आदमी अनेक प्रकारके अव- धौत मतोंसे औषध दिया करते हैं। नाकके रोगमें अपराजिता एक विशेष हितकारी टुटका है। आश्विन मास शेष होनेपर संक्रान्तिके दिन बड़े सवेरे धानके खेतमें जाकर जिस धानमें फूल लगा हो, उसको नौ छोटी छोटी जड़ें उखार लाना और उसी खेतसे एक घण्टी साफ़ जल भी लेते आना। फिर उस जड़को छोटे छोटे टुकड़े करके थोड़ेसे पके केलेके भीतर रखकर रोगीको खिला देना। दवा खा लेने पर घण्टौमें लाये हुए जलमेंसे तौन चूंट जल रोगी पीये और बाकी जल शिरपर डाल ले। जिस केलेके भीतर औषध रखकर रागो खावे, जन्मभर फिर उस जातिके केलेको कभी न खावे। इस औषधक सेवन कर लेनेके बाद रोगीको तीन दिन लगातार सफेद अपराजिताके पत्ते का रस नाकसे सुड़क लेना होगा। इससे प्रायः सभी रोगी अच्छे हो जाते हैं। सांपके काटने पर भी अपराजितासे बहुत उपकार होता है। अन्यान्य प्रकरणों के साथ इसका आध पाव रस सेवन करानेसे रोगी वमन करता रहता है, उससे विष दूर हो जाता है। सांघात देखो।