पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६२९

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दूसरा समान अंश। अपराई-अपरिच्छन्न ६२३ अपराई (सं० लो. ) न पराई म्। नत्र तत्। जो | अपरिकलित (स० वि०) न परिकलितम्, नत्र- पराई न हो, जो पराईसंख्या न हो, दूसरा खण्ड, तत्। अदृष्ट, अश्रुत, अज्ञात, अनजान, विना देखा सुना, विना जाना सुना। अपरावर्तिन् ( स० त्रि०) परावर्तते परा-वृत-णिनि अपरिक्रम (सं० त्रि.) नास्ति परिक्रमो यस्य । परावर्ती ततो नत्र-तत्। अपराङ्मुख, जो विमुख न नञ्-बहुव्रौ। उद्योगरहित, अपरिपाटिक, परि- हो, जो विना काम समाप्त किये चुप न हो। पाटीहीन। अपरावर्ती (हिं० वि०) तत्पर, पीछे न हटनेवाला, | अपरिक्तिन्त्र (स. त्रि.) शुष्क, सूखा। जो काम खतम किये बिना न लौटे, मुस्तैद। अपरिक्लिष्ट (सं.वि.) परि-लिश भावे क्त, नास्ति अपराहू (सं० पु.) अपरमहः, एकदे०स० टच् परिक्लष्टं क्लेशो यत्र, नञ्-बहुव्री० । अनायाससाध्य, अह्लादेशो णत्वञ्च। दिवसका शेष भाग, तीसरा पहर। जो बिना कुछ कष्टके हो जाय, जो सहज हो हो जिस श्रुतिके मतसे दिन दो भागोंमें विभक्त है, उसके जाय। क्लेशशून्य, जिसे क्लेश नहीं है। अनुसार दिनका पिछला भाग, जिस श्रुतिके मतसे अपरिगण्य ( स० वि०) अगणित, बेशुमार, बेहिसाब । दिन तीन भागों में विभक्त है, उसके अनुसार दिनका अपरिगत (सं० वि०) न परिगतम्, नज्-तत् । शेष तौय भाग। अमरसिंहके मतसे भी दिन तीन अज्ञात, अप्राप्त, अपरिचित, अनजान। भागों में विभक्त है। 'पाहापराकमध्याह्नस्त्रिसन्धाम् ।' (अमर) अपरिगृहीत (सं० वि०) न परिग्टहीतम्, नञ्-तत्। अस्खो- लोग दिनके शेषभागको ही अपराहू कहते हैं। कृत, अग्टहीत, अज्ञात, अप्राप्त, छोड़ा हुआ। किन्तु ऋषियोंने कार्यविशेषके लिये जो तोन तीन अपरिग्रह (स० पु०) परिग्टह्यते परि-ग्रह भावे मुहर्तों का एक एक भाग निरूपण करके दिनको पांच अप नञ्-तत् । १ परिग्रहका अभाव, ज्ञानका अभाव । भागों में विभक्त किया है, उसके चतुर्थ भागका नाम २ अखौकार । ३ विराग। ४ परिव्राजक । ५ स्त्रीरहित । अपराहू है। यह अपराहू श्रुति स्मृति सबके मतसे ६ परिचारकहीन । ७ निमूल। ८ पातञ्जलका कहा ही पितृकार्यके लिये प्रशस्त है। दिनके पांच भाग हुआ यम (संयम)12 अहिंसा। १० चोरोका अभाव । हैं। यथा-१म, प्रातःकाल ; श्य, सङ्गव; श्य, ११ ब्रह्मचर्य। मध्याह; ४र्थ, अपराहू; ५म, सायाह्न। इस मुख्य अपरिचय (सं• त्रि०) परिचयका अभाव, जान अपराहूको अप्राप्ति होनेसे ऋषियोंने और एक गौण पहचानका न होना। 'अपराह्न स्वीकार किया है। यथा- अपरिचित (सं० वि०) परि-चि-ता, नत्र तत् । "अपराने तु सप्राप्त अभिजिद्रौहिणोदये ।" (स्म ति ) अनुशौलित भिन्न, अननुशोलित, अज्ञात, परिचित अष्टम एवं नवम घटिका रूप अपराहू प्राप्त होनेसे भिव, अनजान, जो जाना बूझा न हो, जिससे जान श्रुति और लौकिक मतसे यद्यपि सायाङ्ग अपराह्नमें पहचान न हो। पड़ जाता है, पर वह पिढकार्यके लिये अयोगा | अपरिचय (सं० त्रि.) अनमेल, जो मिलनसार न काल है। “राक्षसी नाम सा वेला गहिता सर्वकर्मसु ।" (स्मृति) हो, जिसको संगति करने लायक न हो। सायाह्न तीसरा मुहूर्त है। उसका नाम राक्षसी है | अपरिच्छद (स. त्रि०) नास्ति परिच्छदो यस्य, और वह सब कामोंके लिये निन्दित है। अप्राशस्ता नज-बहुव्री। अपक्कष्ट वस्त्रादि उपकरण- अपराहक (स० वि०) अपराह्ने भवम् अपराह्न युक्त, आच्छादनरहित, दरिद्र, नंगा, खुला हुआ। भावार्थे वुन्। अपराह्व-जात, अन्तिम बेलामें उत्पन्न । अपरिच्छन्न (सं• त्रि०) परि-छद-क्त परिच्छन्नम्, अपराहतन (सं त्रि०) अपराह्वभवम् लुपट तुट्च । नब-तत् । अपरिष्क त, मार्जनशुद्धयादिरहित, आवरण- अपराह्नमें उत्पन्न, तीसरे पहर पैदा हुआ। रहित, नग्न, खुला।