पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अक्षरलिपि जैनयोंके ४थे उपाङ्ग पन्नवना (प्रज्ञापना)-सूत्र में विघोषित हुआ। इससे पहले यवन जातिका अभ्यु दय पूर्वोक्त अट्ठारह लिपियोंका उल्लेख वर्तमान है। हुआ था। रामायण, महाभारत प्रभृति पुराने संस्कृत लिपिकरोंके दोषसे विभिन्न पुस्तकोमें कुछ पाठ ग्रन्थों में भी यवन जातिका विशेष उल्लेख वर्तमान है। भेद देख पड़ता है। प्रज्ञापनासूत्रके टीकाकार मलय यवनानी कहने से बहुत पुरानो कीलरूपा (Cuneiform) गिरिने लिखा है- लिपि ही समझी जाती थी। यवन देखो। "ब्राह्मी यवनानीत्यादयो लिपिभेदास्तु सम्प्रदायादवशेष:" पुष्करसारो। अर्थात् ब्राह्मो, यवनानी इत्यादि अट्ठारह प्रकार समवायाङ्ग और ललितविस्तर में जिस“पुष्करसारी" की लिपि विभिन्न सम्प्रदायोंसे उद्भूत हुई है। लिपिकी बात लिखी है, वह भो भारतको एक बहुत जैनशास्त्रके मतसे जैनाङ्गसमूह महावीर स्वामी पुरानो लिपि है। पाणिनिने पुष्करसारीका उल्लेख के समय पहले फैला और वीर-निर्वाणके १६४ वर्ष किया है। बाद (सन् ई०से ३६३ वर्ष पहले) पाटलिपुत्रके उत्तरकुरुका और गन्धर्वलिपि प्रभृति । श्रीसङ्घमें संग्रहीत हुआ। ऐसे स्थलमें कहा जा ऐतरेय-बाह्मणमें उत्तरकुरु और उत्तरमद्रको सकता है, कि सम्राट अशोकसे पहले भारतमें ब्राह्मौ - बात लिखी है। ऐतरेय ब्राह्मणसे यह भी मालूम होता प्रभृति १८ प्रकारको लिपि चलती थी। कि, वहां वैदिक यागयज्ञ प्रचलित था। याग-यज्ञको यवनानौ। निर्धारण करने के लिये जैसे ज्योतिषका प्रयोजन पड़ता, यवनानी नाम देख कोई-कोई कहना चाहते हैं, वैसे ही उसके लिये शुल्व-सूत्र भी जानना आवश्यक कि मकदूनिया-वौर सिकन्दरके समय इस देशमें है। [ शून्त्रसूत्र देखो!] इसीलिये अनलिपि और गणित- लिपि भी उसौ प्राचीनकालमें चली थी। गन्धारमें यूनानी यवनोंने जो लिपि चलाई वही यवनानी लिपि है। इस यूनानो शब्दका उल्लेख देखकर मोक्षमूलर प्रचलित लिपि ही सम्भवतः गन्धर्व लिपि है। कन्धारके प्रभृति कोई-कोई पाश्चात्य अध्यापक अष्टाध्यायौके सूत्र- साथ बहुत पुराने समयसे ही वैदिक आर्यांका संसव कार पाणिनिको भी इसी समयका व्यक्ति बताया रहा है। वहांको लिपि भी नितान्त आधुनिक नहीं चाहते हैं। किन्तु पाणिनिसूत्रके वार्त्तिककार और है। खरोष्ठी-लिपिक प्रसङ्गमें यह बात पौळे बताई महाभाष्यकारके 'यवनानी' शब्दका लिपि * अर्थ करते जायगी। भी पाणिनिने कहीं स्पष्टतः यह अर्थ नहीं प्रकाश माहेश्वरलिपि किया । स्त्रीलिङ्गमें जिन शब्दोंके उत्तर 'आणुक्' होता पाणिनिमूत्र में जो चौदह प्रत्याहार हैं, उन्हींको है, उन्होंने दृष्टान्तकी तरह उन्हीं शब्दोंका उल्लेख वररुचि, पतञ्जलि प्रभृति वैयाकरण शिवसूत्र कहकर किया है- मानते हैं। देशमें सर्वसाधारण वैयाकरणोंको विश्वास “इन्द्रवरुणभवशवरुद्रम डहिमारण्य यव-यवनमातु तमााणामाणु क् है, कि महेश्वरने ही सबसे पहले व्याकरण प्रकाशित (पा० ४.१५९) किया था। वेदाङ्गके अन्तर्गत जो शिक्षा है, उसमें देखा जो हो, यवनानी शब्दमें आधुनिक सन्देहके जाता है, कि महेश्वरने ही चौसठ अक्षर प्रकाशित करनेका कोई कारण नहीं देखा जाता। यवनों किये। जो हो, इसमें सन्दह नहीं, कि पाणिनिसे (Ionian) का अभ्युदय बहुत पुराना है। हमने दूसरी बहुत पहले शिवसूत्र उत्पन्न हुए थे। चौन-परिव्राजक जगह दिखाया है, कि सन ई०से पहले को १०वीं इत्सिङ्गने सन् ई०को ७ वीं शताब्दिके अन्तिम भाग- शताब्दिमें यवन या योन जातिका पराक्रम सब जगह में भारत आ संस्कृत पढ़ी। उन्होंने लिखा है, 'सिद्धि-

  • 'यवनाल्लिप्याम् इति वक्तव्यम्'-वार्तिक। दीषो यवी यवानी।

रस्तुसे आरम्भकर अक्षरमाला-सम्बन्धीय जो महेश्वर- यवनालिप्याम् । यवनानी लिपिः।-( महाभाष्य ४:१४६ सूत्रमें) के रचे 'सिद्धान्त' छः वर्षके बालक पहले मुख स्थ