पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६४

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अक्षरलिपि करते, उनमें उञ्चास अक्षर हैं। उनके मिले हुए लिपिक 'इ' और 'उ'यह दोनो स्वर 'य' और 'व'से अक्षर अट्ठारह भागों में बंटे और इस तरह इस कुछ ही पृथक् हैं, और ममटिक लिपिम मादृश्य सिद्धान्तमें दश हजार शब्द और अनुष्ट प् छन्दके तीन- रखते हैं। भारतके व्यवहारोपयोगो बना लिये सौ श्लोक वर्तमान हैं।' अध्यापक मोक्षमूलरका जानपर भी उनमें अमम्पूर्णता रह गई है । डाकर विश्वास है, कि यहो 'शिवसूत्र' हैं। किन्तु इत्सिङ्गने बूलर कहते हैं, कि दाक्षिणात्य के भट्टियोल्नमै जो पाणिनि-रचित एक हजार सूत्रोंको ही शिवके प्रत्या सुप्राचीन अशोकाक्षरीको लिपि निकन्नो है, उत्तर- दिष्ट सूत्र मान अपनी सम्मति प्रकाशित की है। भारतीय अशोकलिपिमे उमका कुक हो पायक्य लक्षित यही शिवसूत्र जिस लिपिमें लिखे गये थे, होता है । दक्षिण भारतीय उक्त लिपिका 'या' उत्तर सम्भवत: वही माहेबर लिपिहोगी। अथवा पाणिनिने भारतीय 'अ'कार जमा है : उत्तर भारतीय अगोक- जिस माहेश्वर सम्प्रदायको बात लिखो और वह जिस लिपिक ग्यञ्जनके साथ शाकारका चिन्ह एक समानान्तर लिपिका व्यवहार करती थो, वही माहेश्वर लिपि है। रेखा होती, किन्तु दक्षिण भारताय लिपिम ऐमी श्रादर्शकलिपि। समानान्तर रेवाके बदले व्यञ्जनके शिरपर (1) एमी पतञ्जलिने महाभाष्य में आर्यावर्त वाले सीमा एक जई रेखा बनी है। इममे मानम होता है, कि निर्देशके समय लिखा है,- बहुत पहले ममयमे ही इन दोनी लिपियांम कुक कुक प्रागादर्शात् प्रत्यक्कालकवनाइक्षिणेन हिमवन्तमुनरिण परिपावम् ॥" अलगाव रहा है। पूर्वाक्त पाथाय पगिडत कहते हैं, आदर्श के पूर्व और कालकवनकै पश्चिम, हिमा कि फिनिकीय बणिकांक माथ दक्षिण भारतका मा- लयके दक्षिण और परिपात्रके उत्तर आर्यावर्त क्षात् सम्बन्ध हो गया था। बाइबिल के मनोमनका मोर प्रदेश अवस्थित है। यानी आर्यावर्तको पश्चिम-सौमा 'तुको नामले परिचित था ; द्राविड़में आज भी मोर- पर आदर्श है। मनुसंहितामें आर्यावर्त के पश्चिम को 'तोको' ही कहते हैं। इसलिये इम बातमं मन्देह समुद्र माना गया है। ऐसे स्थलमें समुद्रके नहीं, कि बाइविलोक्त 'तुका दक्षिण भारतमं हो गया पूर्व-किनारेसे आर्यावर्त का अवस्थान स्थिर करना था। इसी तरह दक्षिण-भारतमं वाणिज्य काय प्रार पड़ता है। विष्णुपुराणादिमें भी भारतको पश्चिम-सीमा फिनिकांक यत्नसे जी लिपि चला था, वही उत्तर यवन (Ionia) बताई गई है। इससे मालूम होता है, भारतमें धीरे-धार फैल गई। कि सम्भवतः आदर्श पुराना मिथ या रूम राज्य ही है सिवा अनुमानकै इस बात का प्रष्ट प्रमाण नहीं और वहांको सुप्राचीन लिपि ही आदर्शक-लिपि है। मिलता कि, द्राविड़ के माथ फ़िनिकांका बहुत पहले उसो लिपिका आदर्श ग्रहणकर पाश्चात्य सभ्य जातियों समयसे संम्रव रहते भो फिनिक लिपि द्राविड़ान की लिपि उत्पन्न होनेसे उस सुप्राचीन चित्रलिपिका ग्रहण की। रामायण के ममयम द्राविडमं वैदिक "आदर्शकलिपि” नाम होना कुछ विचित्र नहीं। आर्य-सभ्यता फैल गई थो। वाल्योकिको रामायणमें द्राविड़ी लिपि। दाक्षिणात्यवामी हनूमान् सर्वशास्त्र दर्गा और वेदन दाक्षिणात्यके लिपितत्त्वप्रणेता बूनल साहबके बताये जाकर परिकीर्तित हुए हैं. वह रामनामानित मतसे द्राविड़ी लिपि अशोकको (ब्राह्मो) लिपिसे स्वतन्त्र अँगूठी ले लङ्काको गये थे। ऐसे स्थनमें हम इसमें होते भी उसी एक मूल लिपि या सेमेटिक लिपिसे सन्देह करनेका कारण नहीं देखते, कि मलामनसे निकली है। द्राविड़को बट्टेलेत्त नामक पुरानी बहुत पहले दक्षिणापथक कृतविद्य लोगांमं अक्षरलिपि

  • Max Müller's India, what can it teach us, p. 343.

प्रचलित थी। यह बात सभी पुराविद मानते हैं, कि + "आसमुद्रात् तु वै पूर्वात् आसमुद्रात् तु पश्चिमात् । द्राविड़ी सभ्यता अतीव पुरातन है। यह भी असम्भव तयोरेवान्तरं गिर्यो रायावत्त बिदुई धाः ॥” (मनु २।२२) नहीं है, कि द्राविड़ो सभ्यतासे फिनिक लोग आलो-