पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६४३

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अपमृत-अपगुवान थे? यह प्रश्न सुन यदि कोई ऐसा उत्तर दे,-'नहीं, प्रदौपित मदनानलका धूम धारणकर विराजमान मैं कलिङ्ग देश कभी नहीं गया, तो इसे अर्थगत हो रहा है। अपङ्गव कहेंगे। कारण विना कलिङ्गदेश गये वहां यहां पहले प्रकृत विषयका अपह्नव न करके पीछे वास करना कभी सम्भव नहीं हो सकता। कलङ्कसे धूमका आरोप किया गया। अपहृत (सं० त्रि०) अपहृतेस्म अप-गु कर्मणि क्त । “गोपनीयं कमप्यर्थ द्योतयित्वा कथञ्चन । कृतापङ्गव वस्तु, जिस वस्तुका अपलाप किया गया यदि श्रेषेणान्यथा वाहन्यथयेत् साप्यपङ्गुतिः ॥" (साहित्य) हो, जो चौज़ चोरी की गई हो, अपसारित, अपचित, गोपनीय कोई अर्थ किसी रूपसे प्रकाश करके दूसरी जगह ले गई हुई। यदि श्लेषदारा किम्बा अन्य किसी रूप अन्यथा किया अपगुति (स. स्त्री०) अप-हु-क्तिन् । १ अपङ्गव, जाय, तो वह भी एक प्रकारका अपहुति अलङ्कार अपलाप। २ अर्थालङ्कार विशेष। यथा,-"प्रकृतं प्रतिषि- है। श्लेषमें यथा,- ध्यान्थे स्थापनं स्यादपङ्गतिः ।" (साहित्यद०) प्रकृत पदार्थका प्रतिषेध "काले वारिधाराणामपतितया व शक्यते स्थातुम् । करके उस स्थलमें वैसा ही अन्य किसी पदार्थक उत्कण्ठितासि तरल ! नहि नहि सखि ! पिच्छिलः पन्थाः ॥" स्थापनका नाम अपङ्गति है। अपहति अलङ्कार दो किसी रमणीने अपनी प्रिय सखोसे कहा,- प्रकारका है-किसी स्थलमें पहले प्रकृत विषयका 'सखि ! वर्षाकालमें अपतितारूपसे (पतिशून्य भावमें) अपलाप करके फिर अन्य विषयका आरोप और कहीं रहा नहीं जाता।' यह सुन सखीने पूछा,-'चञ्चले ! आरोपके बाद शेषमें अपलाप होगा। क्यों, क्या तुम उत्कण्ठिता हुई हो' ? इसपर रमणीने अपलापके बाद आरोप, यथा- उत्तर दिया,-'नहीं सखि ! सो नहों, मैं कहती "नेद नभोमबलमभ्युराशि: नैताच तारा नरफेनभङ्गाः । ह, कि वर्षाकालमें मट्टी खिसक जाती है, इसोसे नायं शशी कुण्डलिनः फणीन्द्री नासौ कलङ्गः शधितो मुरारिः ॥" बिना गिरे रह नहीं सकती।' नहिं आकाश समुद्र हे तारा नहिं कण फेन । यहां पति विना रहा नहीं जाता यह गोपनीय नहिं चन्द्रमा कलङ्युत अहिपर राजिवनेन ॥ भाव जिस शब्दद्वारा प्रकाश किया गया था, फिर यह तो आकाश नहीं-नौलाम्बु राशि समुद्र है। उसी शब्दके श्लेषार्थसे अन्य भाव निकल आया। यह तो तार नहीं, केवल नवीन फेनराशि छिन्न भिन्न श्लेषशून्य, यथा- होकर पड़ी हुई है। यह तो चन्द्रमा नहीं, फणीन्द्र "ह पुरोनिलकम्पितविग्रहा मिलति का न वनस्पतिना लता। कुण्डली मारे बैठा है, और यह कलङ्क नहीं-जल स्मरसि किं सखि ! कान्तरतोत्सव? नहि धनागमरौतिरुदाहता ॥" शायी श्यामवर्ण मुरारि शयन कर रहे हैं। किसी रमणीने अपनी सखोसे कहा, 'इस वर्षा- यहां पहले प्रकृत आकाशको गोपन करके फिर कालमें सम्मुखवर्तिनी वायुकम्पित कौन लता वृक्षसे उसको एक एक वस्तुके स्थानमें अन्य वस्तुका आरोप नहीं मिलती ?' यह सुन सहचरीने पूछा, 'तुम क्या किया गया है। कान्तका रतोत्सव ( रतिकालका उत्सव ) स्मरणकर पहले आरोप करके पीछे अपलाप, यथा- रही हो? इसपर उस रमणीने उत्तर दिया,- 'नहों सखि ! मैं वर्षाकालको रौति ही बताती हूं।' "एतद्विभाति चरमाचलच चुम्दौ हिण्डौरपिण्डरचिशौतमरौचिविश्वम् । उज्चालितस्य रजनी मदनानलस्य धूमं दधत प्रकट लान्छनकैववैन ।' 'कौन लता वृक्षसे नहीं मिलतो'-इसके द्वारा राजत चन्द्र अमन्द है छवि वरणौ नहिं जाय । पतिसहवासका सुख प्रकाशकर विरहिणी रमणीने मिस कल मनसिज अनल धूम रही धधकाय ॥ पुनर वर्षाकालकी रीतिका उल्लेख किया, सुतरां यह अस्ताचलच्डावलम्बी फेनसमूहकी भांति प्रकृत भाव गोपन करके अन्य भाव देखाया है। खेतकिरण चन्द्रमण्डल, सुव्यक्त कलङ्कच्छलसे रात्रिमें 'अपहुवान (सं० त्रि०) अप-न-शानच् । चौर्यकर्ता, 160