पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अपाची 1-अपादान अपाची (सं० स्त्री०) १ दक्षिण दिक, जनूब । "निन्दितेभ्यो धनादान' बाणिज्य' शूद्रसेवनम् । अपाचीन (स.नि.) अपाच्या दक्षिणाभ्यां दिशि अपावीकरण जे यमसत्यस्य च भाषणन् ॥” (मनु १११७०१) अपाचि अप्रकाश वा भवं ख। दक्षिणदिकजात, | अपाद (स. त्रि.) नास्ति पादोऽस्य, नज-बहुव्री। अप्रकाशमान, विपर्यस्त, विपरीत। अन्तलोप स०। पादशून्य, जिसके पैर न हों, पङ्गु । अपाच्य (स त्रि०) अपाचि दक्षिणस्यां दिशि भवम् अपादान (सं० लो०) अप अपगमने (चलने) अपाच भावार्थं यत्। १ दक्षिण दिक् जात, अवधित्वेन आदीयते गृह्यते (गणपते) अप-आ-दा दक्षिणीय । २ पश्चिमीय। कर्मणि ल्युट्। ध्रुवमपायेऽपादानम्। पा १।४।२४। विभाग, अपाटव (सं० पु०) पटो व पटु भावे अण् पाटव', अलगाव। व्याकरणसिद्ध कारक विशेष। जिससे न विद्यते पाटवं यस्मिन्, नञ्-बहुव्री०। १ रोग, विभागादि होंगे अर्थात् चलित पतितादि समझा बीमारौ। (क्लो०) २ पटुताका अभाव । (त्रि.) जायगा, उसोका नाम अपादान कारक है। ३ पटुताशून्य। (अपाय शब्दका अर्थ विभाग, विश्लेष इत्यादि एवं ध्रुव अपाठ्य ( स० त्रि०) जो पढ़नेमें न पावे, जो पढ़ने शब्दको अर्थ अवधि है)। अपादान कारकमें लायक न हो, बदलत। पञ्चमौ विभक्ति लगेगी। अपाणिग्रहण (सं० पु.) अविवाहित अवस्था, "निर्दिष्ट विषय किञ्चिदुपातविषयस्त था। कुमारपन। अपेक्षितक्रियञ्चे ति विधापादानमिष्यते ॥” (भत्तु हरि) अपाणिपाद (स. त्रि.) हस्तपदविहीन, विना "श्रुतसाध्य क्रिय' यत् स्यानिद्दिष्टविषयन्तु तत् । हाथ पैरका। उहा साध्यक्रिय यत् स्यादुपात विषयन्तु तत् ॥ अपात्त (सली) अप-आ-दा-त । प्राप्त, दस्तयाब । अपेचित क्रियन्तत् स्यात् यत् क्रियाशून्यमेव हि ॥" (राम) अपात्र (सं० लो०) पाति रक्षति पा-उण-ष्ट्रन् पात्रम्, प्रस्तावके मध्य में ही जिसकी क्रिया सुनो जाय, नज-तत्। थाहादि अब प्रमृति भोजनके अयोगा, उसका नाम निर्दिष्ट विषय अपादान है। जैसे, दानादि कार्यमें असमर्थ, अभाजन, कुपात्र, विद्यादि 'वृक्षात् पर्ण पतति' अर्थात् वृक्षसे पत्ता गिरता है। इस होन, तौरहयके मध्यवर्ती नहीं, सुवादिभिन्न, पत्रभिन्न, जगह पतनक्रिया वाक्य के मध्यमें हो सुन पड़ती राजमन्त्री भिन्न, अयोगा, मूर्ख। है। जिसकी अश्रुतक्रिया अध्याहार कर वाक्यको सङ्गति 'पावञ्च भाजने योग्य पात्र तोरहयोन्तरे। करना हो, उसका नाम उपात्त विषय अपादान रखा पाव'सुवादी पणेपि राजमन्विणि चेष्यते ॥' (विश्व) जायेगा। जैसे, 'घनाविद्योतते विद्युत् ।' 'धनानि:सृत्य विद्युविद्योतते।' अपात्रदायो (सं० त्रि०) कुपात्रको दान देनेवाला । विद्युत मेघसे निकलकर चमकती है। यहां प्रथम अपात्रभृत् (सं. त्रि.) अयोगोंका पालन पोषण वाक्य में 'निःसृत्य यह पद न था, परवाक्यमें उसका करनेवाला। अध्याहार आया। जो क्रियाशून्य है, उसका नाम अपात्रीकरण (सं० ली.) पात्र दानादि सम्प्रदानम् अपेक्षितक्रिय अपादान है। जैसे, 'कुतोभवान्' आप अपात्र दानाद्यं न अहं क्रियतेऽनेन अपात्र क करणे इस प्रश्नमें आते हैं यह क्रिया नहीं है, ल्युट चि ईत्वञ्च । निन्दित प्रतिग्रहादि जनित पाप अथच उसका अर्थ अपेक्षित रूपमें बोध होता है, विशेष, शास्त्रोक्त नौ प्रकारके पापों में चार प्रकारका इसलिये इसका उत्तर देने में, 'पाटलिपुवात्' अर्थात् पाप। यथा,-१ जिसका धन ग्रहण करना शास्त्र में पाटलिपुत्रसे ऐसा अपेक्षित अर्थात् क्रियाशून्य हो निषिद्ध है, उसके धन ग्रहण करनेका पाप 3 प्रयोग होगा। २ असहाणिज्य ३ शूद्रको सेवा ; ४ मिथ्या अपादान कारकमें गद्यारह प्रकारके अर्थसे पञ्चमी कथन। विभक्ति प्रयुक्त होती है। १ जिससे अपाय अर्थात् कहांसे।