पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अपादान-अपामार्ग ३ जिससे ११ जिस- विश्लेष होता है। यथा-'वृक्षात् पर्ण पतति' वृक्षसे | अपानवायु (सं० पु०) १ पांच प्रकारको वायुमेंसे एक । पत्ता गिरता है। २ जिससे भय होता है। जैसे- २ अधोवायु, पाद। 'व्याघ्रात् विभति' शेरसे डरता है। अपाप (स• त्रि०) पाति रक्षति अस्मादात्मानं पा जुगुप्सा होती है। जैसे—'पापात् जुगुप्सते धीरः' उण् प । नास्ति पापं कलुषं यस्य, नञ् -बहुव्री०।१ पाप- धौर व्यक्ति पापसे विरक्त होता है। ४ जिससे पराजय होन, निष्पाप। २ पापजनक, आचारशून्य। (अव्य०) होता है। जैसे-'सिंहात् पराजयते हस्ती' सिंहसे ३ पापके अभाव । (पु.) ४ जलशून्य स्थान। ५ पुण्य । हाथी पराजित होता है। ५ जिससे प्रमाद उत्पन्न अपामार्ग (सं० पु.) अपमृज्यतेऽनेन व्याधादिः होता है। जैसे–'धर्मात् प्रमाद्यति नीचः' धर्मसे अप-मृज करणे घञ् कुत्वं उपसर्गे दीर्घश्च । लटजीरा। नीच व्यक्तिको प्रमाद होता है। ६ जिससे आदान लिङ्गपुराणमें लिखा है,- होता है। जैसे-'भूपात् धनमादत्ते विप्रः' राजासे "कार्तिके कषापचे च चतुर्दश्यां दिनीदये । ब्राह्मण धन पाते हैं। ७ जिससे जन्म होता है। अवश्यमव कर्तव्यं मानं नरकभौरुभिः । जैसे-'पितुः पुत्रो जायते' पितासे पुत्र जन्म लेता है। अपामार्गपल्लवञ्च मामयेच्छिरसोपरि ।" ८ जिससे परित्राण पाया जाता है। जैसे—'व्याघ्रात् कार्तिक मासको कृष्णपक्षीय चतुर्दशौको सूर्य गां रक्षति गोपः' गोप शेरसे गायकी रक्षा करता उदयके पश्चात् नरकभीत लोगोंको अवश्य सान । जिससे विराम होता है। जैसे–'जपात् करना, तथा मस्तकके ऊपर लटजीरके पत्ते घुमाना विरमति विप्रः' जपसे विप्र विरत होते हैं। चाहिये। १० जिससे अन्तर्हित होता है। जैसे–'गुरोरन्तईत्ते मस्तकके ऊपर जिस समय पत्तं घुमावे, उस समय शिष्यः' गुरुसे शिष्य अन्तहित होता है। यह मन्त्र पढ़ ले,- से वारण किया जाता है। जैसे-'यवेभ्यो गां निवा “शोतलोणसमायुक्त सकण्टकदलान्वित । रयति' यवसे गाय निवारण करता है। हर पापमपामार्ग धाम्यमाणः पुनः पुनः॥" अपाध्वन् (स० पु.) खराब सड़क, बुरी राह। हे शीतल तथा उष्ण गुणयुक्त कण्टकान्वित अपान (सं० लो०) अपानयति विष्ठादि अपसारति पत्रविशिष्ट अपामार्ग! मस्तकके ऊपर बार बार अप-आ-नौ-ड। १ योगी लोग मलबारसे जल आकर्षण घूमकर हमारे पापोंको हरो। करते हैं, इसीसे इसका नाम अपान है। (पु०) अपामार्गके यह कई पर्याय देखते हैं- २ अधोवायु। ३ वातकर्म, शरीरस्थित पांच वायुके शैखरिक, धामार्गव, मयूरक, प्रत्यकपर्णी, कोश- अन्तर्गत वायुविशेष। (हिं० पु.) ४ आत्मगौरव, पर्णी, किणिही, खरमञ्जरी, शैखरेय, अधामार्गव, आत्मभाव । ५ सुध । ६ अपना अभिमान । केशपर्णी, स्थलमञ्जरी, प्रत्यक्पुष्पी, चारमध्य, अधो- अपानन (सं• क्लो०) अप-अन भावे लुट् । १ अप घण्टा, शिखरी, दुग्रह, अध्वशल्य, काण्डोरक, मकर्टी, श्वसन, मुख और नासिकाहारा निःसारित वायुका दुरभिग्रह, वाशिर, पराक्पुष्पी, कण्टी, मर्कटपिप्पली, भीतर आकर्षण, मलमूत्रादिका अधोनयन । (त्रि.) कटुमञ्जरिका, अघाट, क्षरक, पाण्डुकण्टक, नाला- २ मुखरहित। कण्टक, कुन। चलती बोलीमें इसे लटजीरा अपानृत (सं० त्रि०) सत्य, सच, झ ठसे भिन्न । अपान्तरतमस् (सं० पु०) अन्तरे भवम् अन्तर अपामार्ग (Achyranthes aspera) एक प्रकारका भवाथै अण आन्तरम् आन्तरिकम् अप अपगतम् क्षुद्र गुल्म है। यह प्रायः दो तीन हाथ ऊंचा होता पान्तरम् आन्तरिकम् तमोऽज्ञानरूपान्धकारो यस्य । है। इसकी टहनी सोधी बंधगौ। उसको चारो प्रादि-बहुव्री.। वेदार्थप्रकाशक देवसुत विशेष । ओर इसके तीक्ष्ण फल लगे रहते हैं। फलोंका प्रम- 161 कहेंगे।