पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६४९

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अपामार्गनारतैल -अपावृत ६४३ है,कि प्रमेह रोग और बच्चोंके पेटको पौड़ामें लटजोरा | अपारणीय (सं० वि०) पहुचके बाहर । सेवन करानेसे उपकार होगा। डाकर उदयचन्द्रके अपारा (सं० स्त्री० ) नास्ति पारं शक्ति सौमा अन्तो मतानुसार बुरे जखमोंके लिये लटजौरेका क्षार प्रशस्त वा यस्याः, नञ्-बहुव्री०।१ असीम शक्ति । २ दुर्गा । है। तिलतेल और इसका क्षार एक साथ पकाकर ३ पृथिवी। कानमें डालनेपर कर्णशूल और कानसे पीब बहना बन्द | अपारी (सं० स्त्रो०) न पारी, नञ् -तत् । पुर भित्र, पड़ेगा। हरिताल भस्म करनेसे पहले संन्यासी लोग पारग भिन्न, पात्रौ भिन्न, हस्तिपादवन्धन भित्र । लटजोरके क्षार जलमें उसे सप्ताह भर भिंगा रखते अपार्जित (सं० त्रि०) फेंक दिया गया, निकाला हैं। उससे शङ्खविषको उग्रता नष्ट हो जाती है। अपामार्गक्षारतैल (स. क्लो०) अपामार्गक्षारजलैः | अपाणं (सं० लो०) अप-अई-क्त अनिट् । अभ्यण, कृतकल्केन साधितं तिलजं तैलम्, ३-तत्। चक्रदत्त समीप, निकट, समीपवर्ती। प्रोक्त कर्णरोगका तैल विशेष । अपार्थ (स.त्रि०) अप-गतोऽर्थोऽभिधेयो धनं वस्तु अपामार्गतेल (सं० लो०) ६-तंत्। चक्रदत्तोक्त प्रयोजनं निवृत्तिा यस्य, प्रादि-बहुव्री.। निरर्थक, कृमिघ्न तैल, चक्रदत्तका कहा हुआ कोड़ा मारने व्यर्थ, अभिधेयशून्य, धनहीन, वस्तुरहित, निष्प योजन, लाला तेल। अनिवृत्त, प्रभावशून्य, नष्ट । अपाय (सं० पु०) अप-इण्-अच्। १ विभागजनक अपार्थकरण (सं० क्लो०) मुकदमे में मिथ्या हेतुवाद क्रिया, विश्लेष, अपगमन, नाश, अनरीति। (त्रि.) करना, मुकद्दमे में झूठा बहाना देखाना। २ लंगड़ा। अपाल (सं० त्रि०) पालयति रक्षति पाल चुरा. णिच- अपायिन् (सं० वि०) अपायोऽस्यास्तौति अपाय अच पालो रक्षको नास्ति पालो यस्य, नज-बहुव्री० । अपाययुक्त, वियोगशील, नखर, विनाशी, पालकरहित, रक्षकशून्य, जिसका रक्षक न हो, अनित्य, अस्थिर। जिसे कोई पालनेवाला न रहे। अपायो, अपायिन् देखी। अपाला (सं० स्त्री०) ब्रह्मवादिनी अत्रिकन्या । अपार (सं० त्रि.) परमेव अण् पारं नास्ति पारं| अपालम्ब (सं० पु०) अप अपकृष्टेन होनेन अव- यस्य, नञ्-बहुव्री०। पारशून्य, पाररहित, जो दुःखसे लम्बाते अप-आ-लम्ब कर्मणि घज् । शकटका पश्चा- उत्तीर्ण हुआ जाय, अतिशय मयादाशाली, अतलस्पर्श, द्भाग, गाड़ीका पिछला हिस्सा । असीम, अनन्त, सोमारहित, अगणित, असंख्य, जो अपालि (सं.वि.) मधुमक्षिकारहित, जहां मधु- उत्तीर्ण न हुआ जाय। मक्खी न हो। निघण्टुमें 'अपार' ऐसा दिवचनान्त पद चौबीस अपाव (हिं० पु०) अन्याय, जुल्म, उपद्रव । द्यावापृथिवी नामसे सहीत हुआ है। यथा, अपावन (सं०वि०) अशुचि, अपवित्र, अशुद्ध, १ खधे, २ पुरन्धी, ३ धिषण, ४ रोदसी, ५ क्षोणी, मलिन। ६ अम्भसी, ७ नभसौ, ८ रजसी, ८ सदसौ, १० सद्मनी, | अपावर्तन (सं० लो०) अप-आ-वृत-लुाट । १ अपा- ११ धृतवती, १२ वहुले, १३ गभीर, १४ गम्भीरे, करण, निराकरण, निवारण, अस्वीकार, निषेध । १५ ओण्यौ, १६ चम्बौ, १७ पाखौ, १८ महौ, २ऊंची नीची जमीनमें गिरकर लोटना, लुढकना। १८ उर्वी,, २० पृथ्वी, २१ अदिती, २२ ग्रहो, अपावृत (सं. त्रि०) अप अपकान्त आवृतात् पाव- २३ दूरे अन्ते, २४ अपर। रणात् निरा-तत् । यहा अप निषेधे आवृतम् । १ अना- अपारग (सं.त्रि०) न पारं गच्छति पार-गम-उ। वृत, अनाच्छादित, उद्याटित । २ स्वतन्त्र, खाधौन। जो पारदर्शी न हो, अक्षम, नालायक, नाकाबिल । ३ प्रावत, पिहित, आवरणयुक्त । इनि।