पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६५१

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शलिके पुत्र। अपिच-अपौड़यत् अपिच. (सं० त्रि०) और भो, दूसरे, वरञ्च, पुनश्च, | अपिभाग ( सं० त्रि०) जिसका भाग हो, हिस्सेदार। बल्कि, ताहम। अपिव्रत (सं० त्रि.) अपि संसृष्टं व्रतं कर्म भोजनं अपिच्छिल (स० त्रि०) न पिच्छिलम्, नञ्-तत् । नियमो वा येन बहुव्री.। ज्ञातिमें अविभक्त, जिसके गाढ़, अपिच्छल, जो पिछलहर न हो। हारा ज्ञातिवाला परस्पर कार्य, भोजन वा नियम अपिज (सं० पु०) अपि जलक्रीड़ाविषये जायते चलाये, संसृष्ट, गोत्रज। अपि-जन-ड, अलुक्स० । १ जलक्रीड़ाजात। २ ज्येष्ठ अपिशवर (सं० अव्य.) शर्वर्या रात्रेः अपि प्रादु. मास, जेठका महीना। जाष्ठ मासमें लोग जलक्रीड़ा र्भावः प्रादुर्भाव अव्ययी. बाहुलकात् अच्-सं । शर्वरीय करते हैं, इसीसे इसका यह नाम पड़ा। मुख, प्रदोष, शाम या सुबहके वक्त । अपिण्ड (सं. त्रि०) पिण्डरहित, पिण्डशून्य । अपिशल (सं० पु०) अपि-निश्चितं शलते धर्मपथ- अपित् (सं० स्त्री०) आपो जलानि इतो नता यस्याः, नैव चलति अपि-शल-पचाद्यच । १ मुनिविशेष, अपि- बहुव्री०। अप-दूण-क्विप् तुगागमः। वेदे न जश् । १ जलरहिता नदी, विना जलकी नदी, सूखी नदी। आपिशालि एक प्राचीन और प्रसिद्ध वैयाकरण थे। २ व्याकरणसम्मत प्रत्ययविशेष । वोपदेवने कविकल्पद्रुम रचना करनेसे पहले लिखा है, अपितु (संत्रि०) अपि तु इन्। किन्तु, वरञ्च, 'इन्द्रश्चन्द्रः काशवत्वापिशली शाकटायनः । लेकिन, बल्कि। पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः॥' अपिट (सं० पु.) पिटभिन्न, जो पिता न हो। 'इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, आपिशलि, शाकटायन, अपिटक (सं० त्रि.) १ जो बाप दादेका न हो, पाणिनि, अमर, जैनेन्द्र, यह आठ शाब्दिक जययुक्त जो मौरूसी न रहे। २ विना बापका। हों। क्यों कि हम उनका मत अवलम्बन करके इस अपित्रा (सं. त्रि.) जो बाप दादेका न हो, ग्रन्थको रचना करते हैं। यह आपिशलि पाणिनिसे गैरमौरूसी। भी प्राचीन और प्रामाणिक हैं, इसौसे पाणिनिने अपित्वि (सं० ली.) भागिनोऽपि त्वरन्ते त्वरां अष्टाध्यायोमें एक सूत्र किया है- कुर्वन्ति यस्मै अपि-वर-ड। भाग, धनविभाग। मा सुण्यापिशलः । पा हा१०१२ । अपित्विन् ( स० त्रि०) अपित्वं धनमस्यास्तीति अपित्व- | अपिहत (स. त्रि.) अपि-धा-क्त । आच्छादित, इनि। भागविशिष्ट, भागयुक्त, हिस्सेदार। आवत, ढका हुवा, जो किसीको आडमें हो। अपिधान (स० क्लो०) अपि-धा-लुपट् । आच्छादन, अपौच (हिं.) अपाच्य देखी। आवरण, ढांक। (त्रि.) २ ढकनेका, जिससे अपौच (स त्रि.) अपि च्यवते सुन्दरत्वं प्राप्नोति, ढाका जाय। अपि च्यु-उ उपसगै दीर्घश्च । “नामत्वष्टरपोच्यम् ।” ऋक् १॥६॥३५॥ अपिधि (सं० पु.) अपिधीयते दृप्तिपर्यन्तं दौयते १ अति सुन्दर, निहायत खूबसूरत, बहुत सुहावना । अपि-धा-कि। ढप्तिपर्यन्त दत्त, दानको जिस वस्तुके २ निर्गत, अन्तहित, गुह्य, गुप्त, पोशोदा, निहां, पानसे तृप्ति हो, जब तक टप्ति न हो तबतक देना। छिपा हुवा। अपिनद्ध (सं• त्रि०) अपि-नह-त । १ परिहित, जो अपीजू (सं० त्रि०) अपि-ज गतौ क्विप, ऋधातो पहना जा चुका हो। २ कपड़ेसे ढका हुआ, रुपसर्गस्य च दीर्घ त्वम् । प्रेरक, तरगीब देनेवाला, जो उसकाये या उभाड़े। अपिप्राण (सं० त्रि.) अपि-प्र-अन-अच् । सर्वदा | अपौड़न (सं० लो०) दुःखका न देना, नम्रता, चेष्टमान, सदा उत्साहित । कपा, तकलीफ न पहुंचानेको हालत, रहम । अपिबद्ध (सं.वि.) बंधा हुआ, जकड़ा गया। अपौड़यत् (संवि०) दुःख या तकलीफ न देते हुवा। 162 बंधा हुआ।