पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६५९

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अपेय-अपेहिकटा ६५३ उनका भी पड़ता है। कि प्रसवके बाद दश दिन पर्यन्त गो, महिष और जिसमें चन्द्रसूर्यका किरण वा वायु नहीं लगता, छागलका दूध न पीये। सिवा उसके अख, गर्दभ उस विरस और विवर्ण जलको व्यापन कहेंगे। प्रभृति जिन सकल पशुका खुर फटा नहीं होता, व्यापन्न जल स्नान और पानादिके पक्ष में निषिद्ध है। दुग्ध अपेय है। महिषको छोड़ अन्य किसी तादृश जल बरतनेसे शोथ, पाण्डुरोग, अपरिपाक, वन्य पशुका दूध पीना उचित नहीं ठहरता। सिवा खासकास, प्रतिश्याय ( पोनस ), शूल, गुल्म, उदरी बकरौ दूसरे जिन सकल पशुके दो-दो स्तन हों, उनका एवं अन्याय अनेक उत्कट रोग लगेंगे। जा नदी दूध पीना भी अकर्तव्य होगा। बच्चे के मरने या पूर्व मुख बहती, उसका जल स्वभावतः वजनी होता गर्भग्रहण निमित्त सांड़के पास जानेसे गोका दूध न ; अतएव वह व्यवहार्य नहीं ठहरता। सहा- पौये। गो प्रभृतिका दुग्ध शुद्ध है, किन्तु स्तनमें क्षत पर्वत और विध्यपर्व तसे जो नदी निकली, उसका पड़ने अथवा मद्य पोनेपर उसका दूध न पीना जल बरतनेपर कुष्ठरोग दौड़ता है। मलयपर्वतजात चाहिये। नदीका जल बरतनेसे उदरके मध्य कमि पड़ेगा। जिस गोके स्तनसे आप हो दूध चूये एवं जिसके महेन्द्रपर्वत-जात नदीका जल काममें लानेसे शोथ दो बच्चे रहें, उसका दुग्ध अपेय होगा। मनुष्यका और उदरी रोग हो जाता है। हिमालयजात नदीके दूध भी निकालकर न पीना चाहिये। शङ्खके मतमें जलसे हृद्रोग, मेद, शिरोरोग, शोथ और गलगण्ड दीर्घकाल इन सकलका दूध पीनेसे प्रायश्चित्त करना निकलेगा। पूर्व और पश्चिम अवन्तीका जल खास- शातातपका कहना है, कि पुनः पुनः कास बढ़ाता है। पूर्वोक्त समुद्र-जल एवं कच्चे ऊंट या आदमौका दूध पीनेसे ब्राह्मणादिको फिर मांसादिसे दुर्गन्धयुक्त और खारे पानीको काममें लाने- उपनयनके साथ तपकच्छ प्रायश्चित्त उठाना उचित पर अनेक ही दोष आयेंगे। दुष्टपदार्थ-मिश्रित और होगा। गोतम मक्खन निकाले हुये दूध, मक्खनसे बद्द जल अनुपकारी है। रोग विशेषमें वैद्यमतसे छूटे पानी, तेल निकाली खली, अत्यन्त सार लिये शीतल जल अपेय ठहरेगा, यथा-पावशूल, पोनस, हुये जल-जैसे मठे और सारांश निचोड़े असार मांस वातरोग, शोथ, जड़ता, कोष्ठरोग, नवज्वर, प्रभृति किसी भी द्रव्यको व्यवहारयोगा नहीं हिक्का प्रभृति। समझते। अपेल (हिं० वि०) अभेद्य, अट्ट, ढेरका ढेर, बेशुमार। शूलपाणिके मतसे कपिला गायका दूध पीनेपर अपेलव ( स० वि०) न पेलवम्, नज-तत्। अविरल, सच्चरित्र क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रको प्रायश्चित्त करना घन, भरा हुवा, गुजान्। उचित है। अपेशल (सं० पु०) न पेशलः, विरोधे नज-तत् । वैद्यशास्त्रोक्त धातुवैषम्यजनक कितने ही द्रव्य अपेय 'दचे तु चतुरपेशलपटवः ।' (अमर ) १ अचतुर, अनिपुण, अपटु, होते, जिनका अधिकांश कुपथ्य समझते हैं। वर्षा बेवकूफ, अहमक। २ सुन्दर वा रम्यभिन्न, जो खू ब- कालके जलमें गाङ्गेयत्व और समुद्रत्व यह दो गुण सूरत या मुहाना न हो। रहेंगे। गाङ्गेयत्व जल पीना चाहिये। समुद्र-जलका अपेशस् (वै त्रि.) रूपरहित, बेशक्ल, जिसके कोई चिह्न विकृतवर्ण और क्ले दयुक्त है। वही जल अपेय होगा। कौट, मूत्र, विष्ठा, डिम्ब, शव प्रभृतिके अपेशी सं० स्त्री०) न पेशी, नज-तत्। पक्षौके रससे दूषित, ढण-वृक्षवाले पतितपत्र द्वारा दुर्गन्ध, अण्ड भिन्न, सूत्रवत् मांस भिव, जो चीज चिड़ियेके मैले और विषयुक्त वर्षाकालके जलसे नहाने या उसे अण्डे या धागे जैसी न हो। पौनेपर वाहा एवं आभ्यन्तरिक रोग लग जाता अपेहिकटा (सं. स्त्री०) अहि अपगच्छ कट है। जो शैवालादिसे आच्छादित रहता एवं इत्युच्यते यस्यां क्रियायां, मयर० स० । कट सम्बोधन- 164 सूरत न रहे।