पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६६

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अक्षरलिपि हैं। खरोष्ठी लिपिमालाके उत्पत्ति-प्रसङ्गमें इस ऋषभदेवने ही सम्भवतः लिपिविद्याके लिये लिपि विषयको आलोचना की जायगी। द्राविड़ीय सभ्यता कौशलका उद्भावन किया था। इसलिये देखते हैं, कि समुद्रको राह सुदूर पाश्चात्य और प्राच्य जनपदों- ब्राह्मोलिपि कहनेसे पुराकालमें वैदिको लिपि हो में फैल कर भी भारतमें आर्यवैदिकोंके प्रभावसे ठहर समझी जाती रही। यह पहले हो प्रमाणित हो चुका न सकी। यहां अगस्त्यादि आर्य-ऋषियोंने द्राविड़ी है, कि वेद अवश्य लिपिवद्ध होते थे। ऋषभदेवने ही समाजका संस्कार कर लोगों को आर्यभावापन्न बना सम्भवतः ब्रह्मविद्याशिक्षाको उपयोगी बाह्मोलिपिका लिया था। इसीसे आज भो अगस्त्य ऋषि अक्षरमाला प्रचार किया ; हो न हो, इसीलिये वह अष्टम अवतार और व्याकरणके बनाने वाले बताये और गिने जाते बताये जाकर परिचित हुए। ब्राह्मोलिपि नामसे भी है' और द्राविड़ी लिपिमें ब्राह्मी लिपिके आदर्शसे लोगोंका यह कहना सच मालूम पड़ता है, कि पहले अक्षरमालाको संख्या भी बढ़ गई है। यह लिपि ब्रह्मावत में आविष्क त हुई थी। वेदव्यास भी यह बात कहनेसे लिपि-प्रचारक गिने जा सकते हैं, बाह्मी लिपिकी उत्पत्ति । कि उन्होंने वेद-सङ्कलनकालमें इस लिपिस काम लिया। अल् बरुणी, भारतीय पण्डितोंके मुंहसे सुनकर लिख गये हैं, कि पराशरपुत्र वेदव्यास ही अक्षर- जो हो, ब्राह्मीलिपि ही भारतीय आर्योंकी आदि लिपि है, इस ब्राह्मी लिपिसे हो भारतको सब लिपि लिपिके उद्भावयिता थे। जैनियोंके मतसे ऋषभदेवन निकली हैं। दाहने हाथस अट्ठारह प्रकारको जो लिपि सिखाई डाकर बूहलरने अशोकलिपिको हो बाह्मो कह थीं, उनमें से आदि लिपिका नाम ब्राह्मी है। भागवतके कर गणना की है। निःसन्देह, हम यह स्वीकार नहीं मतसे ऋषभदेव भगवान्का आठवां अवतार हैं कर सकते । अशोकके समय भारतमं चौसठ प्रकारको (१।३।१३)। वह लोक, वेद, ब्राह्मण और गो सबके लिपि चलती थीं, उस समय पाटलिपुत्र उनको राज- परम गुरु थे और उन्होंने सकल धर्मके मूल गुह्य ब्राह्म- धानी थी। ऐसे स्थल में उनके अनुशामनीको मागध- धर्म (वेदरहस्य)का ब्राह्मणदर्शित · मार्गके अनुसार उपदेश दिया था (५।६।अः) । ब्रह्मावर्तमें ब्रह्मर्षियोंको विभिन्न प्रदेशोंसे जो अशोकलिपि निकती हैं, उनके ब्राह्मौलिपि कहकर ग्रहण कर सकते हैं; इसे छोड़ सभाके बीच उन्होंने ब्राह्मधर्मका प्रचार किया अक्षर और उनकी शब्दयोजना अविकल एक तरह (५।४।१६-१८)। राजर्षि भरत उन्हीं ऋषभदेवके पुत्र नहीं। विहारके बरावरको गिरिलिपिमें 'अनपितम्', थे। उन्हीं के नामपर इस देशका नाम भारतवर्ष रखा दाक्षिणात्यको स्तम्भलिपिमें 'आनपयिमति और उत्तर- गया है। वह ब्रह्माक्षरका जप करते थे (५।८।११)। पश्चिम-प्रदेशको स्तम्भलिपिमें "पाना पनि महाभारतमें लिखा है- देख पड़ता है। यह कैसा अक्षरविपर्याय है, कि "इत्य ते चतुरो वर्णा वैषां ब्राह्मी सरखती। दक्षिण-देशीय लिपिमें एतारिसम्' और 'अनयम' किन्तु विहिता ब्रह्मणा पूर्व लोभात्त्वज्ञानतां गताः ॥" (शान्तिपर्व १८८।१५) उत्तर-देशीय लिपिमें एतादिसम्' और 'अगबम' लिखा चारो वर्ण ब्राह्मणसे ही वर्णान्तरको प्राप्त हुए हैं मिलता है। इस छोड़ दक्षिण-देशीय और उत्तर- और पूर्व कालसे ही ब्रह्माने इन चारो वर्णो को ब्राह्मी देशीय लिपिके बीच भी व्यञ्जनसे मिले आकार और भाषा निर्दष्ट कर रखी है। उद्धृत प्रमाणसे अच्छी तरह जान पड़ता है, कि इकारका प्रमद देख पड़ता है। इससे सहजमें हो समझा जायगा, कि देशभेदस जैसे भाषामें कुछ अल- ब्रह्म शब्दका अर्थ वेद और ब्राह्मोका अर्थ वैदिको है। गाव गया था, वैसे ही अक्षरलिपि भी सामान्य

  • "अथ श्रीऋषभदेवेन ब्राह्मी दक्षिण हस्ते न अष्टादश लिपयो दर्शिताः।" रूपसे बदल गई थी। मालूम होता है, कि अशोकसे

(लीवल्लभगणिरचितकल्पसूत्रकल्पद्रुमकलिका) पहले ऐसी कोई लिपि वर्तमान थी। अक्षरयोजनाके । पाठ