पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६६३

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अप्रकल्पक-अप्रगीत न हो। २ अद्वितीय, अप्रतिहत, जिससे कोई सबकत ३ स्वभावहीन, बेतबीयत। ४ कृत्रिम, मसनवी, जो न ले गया हो। असली न हो, बनाया हुवा। अप्रकल्पक (सं. त्रि.) आवश्यककी भांति न लिखा अप्रकृताश्रित-श्लेश (सं० पु०) काव्यालङ्कार विशेष। जाते हुवा, जो जरूरी समझकर न लिखा जाता हो। इसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनोका श्लेष रहता है,- यह शब्द औषधपत्र या नुसखेका विशेषण है। पावसमें सखि देखिये पावत हैं घनश्याम । अप्रकाण्ड (स० पु०) न प्रकृष्टः काण्डः स्कन्धो यस्य, ताप हृदयको मिट गयो राम बनाये काम ॥ नज -बहुव्री०। १ वन्य झिण्टिका, जङ्गली झाड़ी। अप्रकृति (सं० स्त्री०) न प्रकृतिः, नज-तत्। १ प्रकृति २ स्तम्बभिन्न, स्कन्द भिन्न, जो चीज, डाल न हो। भिन्न, कुदरतसे अलग रहनेवाली चीज़। २ कार्य- ३ गुल्म, पौधा । (त्रि०) ४ शाखाशून्य, बेडाल । कारण भिन्न साङ्ख्योक्त पुरुष। ३ व्याकरणोक्त प्रकृति अप्रकाश (सं० पु.) न प्रकाशः, अभावे नञ्-तत् । भिन्न प्रत्यय। ४ मीमांसोक्त प्रकृति भिन्न विकृति। १ प्रकाशाभाव, गोपन, जहरको नामौजूदगी, पोशी (त्रि०) प्रकृतिः स्वभावः सा नास्त्यस्य, नञ्-बहुव्री। दगी, छिपावा। (त्रि.) नास्ति प्रकाशो यस्य, नज ५ प्रकृतिश न्य, स्वभावहीन, वैमिज़ाज, पागल । बहुव्री०। २ प्रकाशशून्य, रोशनीसे खाली। अप्रकृतिस्थ (सं० त्रि०) प्रकृती खभावे तिष्ठति, "प्रकाशशाप्रकाशश्च लोकालोकद्रवाचल:।" (रघु १।६८) प्रकृति स्था-क प्रकृतिस्थम् ; नत्र तत्। "प्रकृतिस्थेन (अव्य०) ३ गोपनमें, छिपकर, पोशीदगीसे । पिवादिना।” (रघुनन्दन ) रोग वा भयादि हेतु खभावच्युत, अप्रकाशक (सं० त्रि०) १ प्रकाशित न करनेवाला, जिसकी बीमारी या खौफसे तबीयत बिगड़ गयौ हो। जो चमकीला न बनाये। २ अन्धा बनानेवाला, जो अप्रकष्ट (सं० त्रि.) न प्रकृष्टम्, विरोधे नज-तत् । धंधला कर देता हो। १ निकृष्ट, अपकर्षयुक्त, अधम, खुराब, बुरा। (पु.) अप्रकाशमान (सं० त्रि०) गुप्त, अप्रकट, छिपा हुवा, २ काक, कौवा। जो जाहिर न हो। अप्रक्लप्त (सं० त्रि०) प्र-कप-त रोलादेशः प्रक्लप्तम् ; अप्रकाशित, अप्रकाशमान देखी। न प्रल,प्तम्, नज-तत्। १ क्लप्त भिन्न, अनुचित, अप्रकाश्य (सं० त्रि०) प्र-काश-णिच् अर्हार्थे कर्मणि| गैरवाजिब । यत् प्रकाश्यम् ; न प्रकाश्यम्, नज-तत् । प्रकाश | अप्रकेत (वै• त्रि०) मूर्ख, बेवकू.फ। करनेके अयोगा, गोपनीय, छिपाने काबिल, जो अप्रक्षित (सं० वि०) प्र-क्षि भावे त, दीर्घवाभावान जाहिर करने लायक न हो। शास्त्रकारोंने क्तस्य न ; नास्ति प्रक्षितं प्रक्षमो यस्य, नञ् बहुव्री। कितने ही विषय सर्वदा अप्रकाश्य रखनेको क्षयरहित, क्षयारब्ध भिन्न, घटाया न गया, जो सड़ा- बताये हैं,- गला न हो। "जन्मच मैथुनं मन्त्री ग्टहच्छिद्रच्च वञ्चनम् । अप्रखर (सं० वि०) न प्रखरम्, विरोधे नज-तत् । आयुर्धनापमान' स्त्री न प्रकाश्यानि सर्वथा ॥” ( काशीखण्ड) १ अतीक्ष्ण, भद्दा, जो तेज़ न हो। २ मृदु, मुलायम । जन्म-नक्षत्र, मैथुन, मन्त्रणा, कुलका कलङ्क, दूसरे- | अप्रगम (सं० त्रि.) अपूर्व गमनशील, जिसको से अपनी वञ्चना, अपना वयःक्रम, अपना धन, अपना चलने में कोई पकड़ न सके। अपमान और स्त्री यह सकल किसौसे बताना न | अप्रगल्भ (सं० वि०) सुसभ्य, सहनशील, शायस्ता, चाहिये। जो गुस्ताख न हो। अप्रक्कत (सं.वि.) न प्रकृतं प्रस्तावित यथार्थों | अप्रगाध (सं. त्रि.) अति गभौर। (दिव्यावदान) वा, नत्र-तत्। १ अप्रस्तावित, खास मजमूनसे | अप्रगीत (सं० वि०) उच्चैःखरसे न अलापा हुवा, ताल्लुक न रखनेवाला। २ अयथार्थ, झठा, गैरवाजिब । जो बुलन्द आवाजसे न गाया गया हो। 165