पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६८

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अक्षरलिपि पार्थक्य, प्रयोग और नियमको देखते एक ब्राह्मी हम यह मान सकते हैं, कि अधिकांश भारतीय लिपिसे ही सब देशीय लिपि उत्पन्न हुई हैं। धर्मशास्त्र बौद्धयुगसे पहले के बने हुए हैं। [स्मृति देखी। आज तक भारतमें जितनी लिपि आविष्कृत हुई याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ, व्यास, वृहस्पति, कात्यायन प्रभृति हैं, उनमें कपिलवास्तु (वर्तमान पिपावा) गांवको सभी धर्मशास्त्रकारोंने राजलेख्य और राजानुशासन- बौद्धलिपि ही सबसे पुरानी है। यह लिपि सन् लिपिका उल्लेख किया है। महर्षि याज्ञवल्कान ई०से कोई ४५० यानो २३६४ वर्ष पहलेको है। इस निर्देश किया है- लिपिके साथ आजकलको अशोक-लिपिके अक्षरोंका "दत्त्वा भूमिं निबन्ध वा कृत्वा लेख्य तु कारयेत् । अलगाव नहीं है। इसलिये. यह स्वीकार करना पड़ेगा, आगामिभद्रनृपतिपरिज्ञानाय पार्थिवः । कि ढाई हजार वर्ष पहले ब्राह्मो-लिपिका ही परिणाम पटै वा तासपर्ट वा खमुद्रीपरिचिङ्गितम् । अभिलख्यात्मनो वश्यानात्मनच महीपतिः ॥ होनेवाली मगधलिपि चल रही थी। पूर्वोक्त लिपि- प्रतिग्रहपरिमाणं दानच्छ दीपवर्णनम् । को पूर्ववर्ती लिपि आज तक लोगों में प्रचारित न वहस्तकालसम्पन्न शासन कारयेत् स्थिरम् ॥” (१।३१७ ३१८) होनेसे प्रत्नतत्त्वविदोंको विश्वास है, कि अशोकने राजा भूमिदान या कोई चिरस्थायी बन्दोबस्त ही पहले अनुशासन-प्रचारका प्रबन्ध किया, उनसे करनेपर भावो भद्रनृपतियोंको समझानेके उपयोगी पहले ऐसे अनुशासन-प्रचारको व्यवस्था न हुई लेख लिखायें। राजा रुईके वस्त्र या ताम्रफलकपर थी। किन्तु ऐसे विश्वासका कोई मूल नहीं। जितने अपना, वंशीय पिटपुरुषों और प्रतिगृहौताका नाम, दिन पिप्रावेको बौद्ध-लिपि आविष्कृत न हुई थी, प्रतिग्रहका परिमाण, ग्राम क्षेत्रादि दो हुई भूमिको उतने दिन पुराविदोंका ऐसा विश्वास रहा सही, चतुःसौमा और उसका परिमाण निर्देश करें। पूर्वोक्त किन्तु इस समय उनका यह विश्वास दूर हो गया है। पत्रमें राजा अपने निजके दस्तखत करें और सन्, अशोकावदान प्रभृति बहुतसे पुराने बौद्ध-ग्रन्थोंसे तारीख और अपनी मुहरको छाप लगवा दें। जाना जाता है, कि अशोकने ८४००० धर्मराजिका यूनानी लेखक नियार्खस्ने सन् ई०से पहले को प्रतिष्ठित की थीं ; किन्तु अब उनमेंसे २५।२६ ही विद्य- ४थौ शताब्दिमें जिन कार्पासादि लेखोंकी बात कही मान हैं । ऐसे स्थलमें विचार कौजिये, कि उनसे पूर्व थो, उनको हो हम याज्ञवल्क योक्त ‘पट' कह और वती कीर्ति का क्या परिणाम है! काशीजीके पास- समझ सकते हैं। वाले सारनाथको दश हाथ मट्टौके नीचेसे भी बहुत अशोकलिपिसे पहले को पिप्रावावालो बौद्धलिपि- सौ पुरानौ बौद्धकौर्ति, अशोक और कनिष्कलिपि के अक्षर पूर्णावयवसम्पन्न हैं। इस लिपिका पूर्णावयव निकली हैं। ऐसा अनुसन्धान होनसे यह नहीं है,कि बनने में बहुतसौ शताब्दि बीत गई थीं। जब ऐसौ सुप्रा- बहुत नीचे भूगर्भसे पुरानीसे भी पुरानी लिपि नहीं चीन सभी भारतीय लिपिमें बांई ओरस दाहनी निकल सकतीं। सैकड़ों बार भूकम्प में प्राकृतिक विप- ओरका मूल मिलता है, तब बामौलिपिको भौ हम य॑यसे जो लाखो सुप्राचीन भारतीय कौर्ति भूगर्भशायी ऐसौ ही लिपि या इसका प्राचीन रूप बता ग्रहण कर हुई हैं, उनका हिसाब कौन लगायेगा ? जब ८४ हज़ार

  • इस समय जो कई एक धर्मशास्त्र प्रचलित हैं, उनमें याज्ञवल्क्य-संहिता.

अशोककौति में केवल बौस-पचौस बाकी बची हैं, से मानवधर्म सूत्र बिलकुल मिल जाता है। इसीलिये पाश्चात्य संस्कृतज्ञ तब यह बात सहज ही अनुमय है, कि उनसे पहले- पण्डित प्रचलित धर्म शास्त्री याज्ञवल्क्य-स्म तिको बहुत पुरानी समझते हैं। को लाखो कौति विलुप्त हो गई। इसलिये पिप्रावे- मनुके नामसे जो झोक रामायण और महाभारतमें उद्धृत हुए हैं, उनके को बौद्ध-लिपिसे पहलेको कोई शिलालिपि आज तक कितने ही लोक हमने याज्ञवल्का-स्म तिमें देखे हैं। ऐसे स्थलमै याज्ञ न निकलौ बता हम यह न ख्याल करेंगे, कि उससे वल्का-धर्मशास्त्रको बुदैवसे बहुत पहलेका कहकर ग्रहण करने में कोई पहले किसी राजकीय लिपिका चलन न था। आपत्ति नहीं होती। १७