पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७३

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अक्षरलिपि ई०के पूर्व और ६ शताब्दमें चली गुप्तलिपि सुराष्ट्र और गुजरातसे सन् ई०के उसे ८वें शताब्दके बीच उल्कीर्ण वाकाटक राजवंशकी लिपि, नासिक ज़िलेसे सन् ई० के ५वे शताब्दमें उत्कीर्ण कदम्ब- राजौंको लिपि, कर्णाट और महाराष्ट्रसे निकली सन् ई०के ठें शताब्दस ८वें शताब्द तक वाली प्रतीच्य चालुक्य राजवंशकौलिपि, गोदावरी और कृष्णा ज़िलेसे प्राप्त सन् ई० के वे शताब्दवाली प्राच्य- चालुक्य राजाओंकी लिपि, काञ्ची और उसके निकट- वर्ती स्थानोंसे आविष्कृत सन् ई०के ५वेसे ७३ शताब्द तक वाली पल्लवराजाओंको लिपि, महिसुरसे उत्कीर्ण सन् ई के ७वे शताब्दवाले गङ्ग (दक्षिण- शाखा) और चेरराजोंको लिपि, गुजरात और कर्णाट- से आविष्कृत राष्ट्रकूटलिपि और कलिङ्गसे सन् ई०के वेस १२वे शताब्दके बीच खोदी गई गङ्गराजोंको लिपि उल्लेख योग्य है। इन सब विभिन्न लिपियोंकी आलोचना कर हम अच्छी तरह जान सकते हैं, कि कलिङ्गको गङ्गलिपिसे आजकलको उड़िया, चालुक्य लिपिसे वर्तमान तेलगु और कणाड़ी, और चेर और चोल लिपिस वर्तमान तामिल बनी है। दाक्षिणात्य-लिपितत्त्वप्रणेता डाकर बूर्नेल साहबने दाक्षिणात्यकी लिपिमालाको प्रधानत: चार भागोंमें विभक्त किया है-१ तेलगु, कणाड़ी, २ ग्रन्थतामिल, ३ बट्टे लेत्तू और ४ दक्षिणी नागरी। वेङ्गी, प्राच्य और प्रतीच्य चालुक्य और यादवलिपि तेलुगु कणाडोके अन्तर्गत हैं, इन्हीं सब लिपियोंसे प्राचीन और आधुनिक तेलगु और कणाड़ी लिपिको पुष्टि हुई है। चेर और चोललिपि ग्रन्थतामिलके अन्तर्गत हैं, यानी इन्हीं दोनो नी लिपियोंसे प्राचीन और आधुनिक तामिल-ग्रन्थ- लिपि और तुलुमलयाललिपि उत्पन्न हुई है। पहले ही कह दिया है, कि पुरानी तामिल-लिपिसे पहले बट्टे लेत्तू नामक एक प्रकारको खास द्राविड़- लिपि उत्पन्न हुई थी, जो थोड़े ही दिनमें अप्रचलित हो गई। बट्टे लेत्तू। बट्टे लेत्तू या वर्तुललिपिका यह नाम इसलिये रखा १८ गया होगा, कि यह गोल होती है। यह निश्चय करना एक प्रकार असम्भव है, कि कितने दिन पहले इसको उत्पत्ति हुई थी। डाकर बूर्नल साहबके मतसे यह लिपि अशोक- लिपिसे समुद्भूत । कारण, यह अशोकलिपिके साथ ध्वन्यात्मक सादृश्य नहीं रखती; संस्कृत वैया- करणों के दाक्षिणात्यमें पहुंचनेसे पहले यही द्राविड़- लिपिरुपसे चलती थी। उनके मतमें, अशोकवाली मौर्यलिपिकी तरह यह प्राचीन लिपि भी सेमेटिक लिपिसे उद्भूत है। लेनरमण्टने बट्टे लेत्तू और सासनीय (पहलवो) लिपि मिलाकर दोनोके अक्षरों में यथेष्ट सादृश्य निकाला है। किन्तु बहुत दिन ब्राह्मो, द्राविड़ीके प्रभावसे धीरे-धीरे अचल होते रहने के कारण बट्टे लेत्तूका सबसे पुराना रूप प्रगट नहीं होता। पहले ही कहा है, कि उत्तर-भारतस पणिकोंकी एक शाखा दाक्षिणात्यमें जा पड़ी थी, आदिमें वही बट्टेलेत्तूलिपिको व्यवहार करते रही ; उसने उस अतिप्राचीनकाल में किसीके पासस लिपि ग्रहण न की थी। मिश्रमें बहुत पुरानी सङ्कत (Hieratic) लिपिके बीच अकार और इकार लिपिके उच्चारणका जो सङ्केत है, उसके साथ बढे लेत्तूका सौसादृश्य रहा है। ऐसे स्थल में हम सोच सकते हैं, कि द्राविड़वासी पणिकीको बाणिज्य लिपिने सुदूर मिश्रमें प्रचारित हो सकतलिपिका आकार धारण किया था। डाकर टेलरने दिखाया है, कि वही सङ्कतलिपि सिदोन, मोबाब, अरमा, से वीय, योक्तान प्रभृति स्थानीय फिनिक या सेमेटिक लिपियोंकी जननी है। सुतरां द्राविड़की पादिलिपिको भी हम सुप्राचीन बहुतसी पाश्चात्य-लिपियोंको जड़ बता गण्य कर सकते हैं। सन् ई०के वे शताब्दके प्रारम्भमें द्राविड़के हिन्दू राजाओंने सिरीयोंको जो शासन दिये थे, उनमें भौ बट्टे ले के अक्षर पाये गये हैं, इसी समयसे अल्प- काल पौछे सन् ई के ८वें शताब्दमें चोलराज मदुरा- पर अधिकार कर तामिल अक्षर चलाते रहे, इसौ -