पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७३०

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अब्द ७२३ ६४५१ वर्ष अश्में २५२६ जोड़ देनेसे युधिष्ठिरका समय मालूम हो जायेगा। एक-एक नक्षत्र में सप्तर्षि सौ-सौ वर्ष विचरण करते हैं। यह उत्तरपूर्व दिशा में सर्वदा साध्वी अरुन्धतौके साथ उदय होंगे। किन्तु वराहमिहिरके टीकाकार भट्टोत्पलने जो गर्गवचन उद्धृत किया, उससे विदित होता है,- कलि और द्वापरयुगके सन्धिकालमें विश्ववासि- गणको रक्षासे उत्फुल्ल ऋषिगण पिटगणपर अधिष्ठित नक्षत्र अर्थात् मघानक्षत्र में अवस्थान करते थे। उक्त गर्गवचनसे मालम पड़ता है, कि द्वापर और कलिके सन्धिस्थलपर सप्तर्षिगण मघानक्षत्रमें थे । गर्गने युधिष्ठिरका नाम नहीं लिया। वराहमिहिरने अपनी गणनाको सुविधाके लिये युधिष्ठिरको पकड़ा है। अब देखते है, कि सप्तर्षि एक-एक नक्षत्रमें सौ वर्ष भोग करते हैं। सप्तर्षिको २७ नक्षत्र भोग करने में २७०० वर्ष बीत जाते हैं। ज्योतिष और पुराणादिक मतसे २७ नक्षत्रोंमें प्रथम अश्विनी है। सबके मतानुसार सप्तर्षि जब मघानक्षत्रमें थे, उसी समय कलियुगका आरम्भ और युधिष्ठिरका अभ्युदय हुआ। इधर अधिकांश पुराण देखनेसे विदित होता है, कि कुरुक्षेत्र-महासमरके समय सप्तर्षिने मघामें ७५ वर्ष अतिवाहित किया था। अवश्य ही वराह- मिहिरके साथ यह मत न मिलनेपर भी अभीतक पञ्जाबके पहाड़ी प्रदेशमें सभी पुराणानुसार हो लोक-कालको स्थिति गिनते हैं। उन लोगोंके मतसे भी वर्तमान कलियुगारम्भके पूर्व अर्थात् हापरमें ७५ वर्ष मघापर अतिवाहित कर सप्तर्षिने कलियुगके २५ वर्ष भौ मघामें ही बिताये थे । पहले कहा जा चुका है, कि सन् इस्वीसे २१०१ पहले कल्यब्द आरम्भ हुआ था। ऐसे स्थल सन् ईस्वीसे ३०७७ पहले मधानक्षत्रपर रहकर सप्तर्षि पूर्वफल्गुनीमें गये। मघा १०वा नक्षत्र है, इसलिये अखिनौसे गिननेपर और भी १००० वर्ष पोछे पड़ सन् ईस्वीसे ४०७७ वर्ष पहले जा पड़ता है। प्रत्नतत्त्वविद् कनिहामने महावीर सिकन्दरके भारतसंसव सम्बन्धमें उनके सहयात्रियोंके विवरणपर निर्भर कर लिखा है, 'वह ( पञ्जाबवासी ) बकास्से सिकन्दर तक १५४ राजा और उनका राज्यकाल ३ महीना गिनते है। * सिकन्दर सन् ईस्खोसे ३२६ वर्ष पहले पञ्जाब पाये और उसी वर्षके अन्त लौट भी गये थे। ऐसे स्थलमें सन् ईस्खोसे ५४५१+ ३२६ =६७१७ अब्द पहले सप्तर्षिकालका आरम्भ स्वीकार करना पड़ेगा। पहले ही बता दिया है, कि सन् ईखोसे ४०७७ वर्ष पूर्व सप्तर्षिने प्रथम अश्विनी नक्षत्रमें प्रवेश किया अर्थात् सप्तर्षिचक्र प्रारम्भ हुआ था। उसमें दूसरे किसौ सप्तर्षिचक्रके २७०० वर्ष जोड़ देने पर सन् इस्खोसे ६७७७ पहले वह जा पड़ता है। पुराविद सर् कनिहाम्के मतसे उक्त वर्ष हो “Starting point of Indian Chronology" * अर्थात् भारतीय काल- निर्णयविद्याका प्रारम्भकाल है। सिकन्दरसे पहले यह अब्द पञ्जाबमें प्रचलित रहा और अब भी है। बाईस्पत्यमान वा षष्टिस'वत्सर । बृहस्पति ग्रहके विभिन्न नक्षत्रका अवस्थान रखकर यह अब्द गिना जाता, इसौसे इसका नाम बाहस्पत्य- मान है। फिर इसा बाहस्पत्य-मानके साठ भागों (विभिन्न साठ नामों )में विभक्त होने कारण इसका दूसरा नाम षष्टिसंवत्सर पड़ा। कोई कोई पाश्चात्य पुराविद् यह अब्द आधुनिक खयाल करते हैं, किन्तु जब वराहमिहिर और उनके बहु पूर्ववर्ती वृद्धगर्गने इस संवत्सरका उल्लेख किया, तब निःसन्देह यह ईसामसीहके जन्मसे बहुत पहले भारतवर्षमें प्रचलित रहा है। वराहमिहिरने इस अब्दका निर्णय करनेके लिये इसतरह व्यवस्था की है- शक राजाके समयसे जितने वर्ष बीत चुके हैं, उन्हें दो स्थानों में रखकर एक स्थानका अङ्क ११से गुण करना होगा। पौछे उस गुणफलको ४से गुण दीजिये। फिर इस गुणफलमें ८५८ जोड़ना होगा। इस योगफलको ३७५०से भाग लगायिये । फिर दूसरे स्थानके शक-वत्सरवाले अङ्गमें इस भागफलको Cunningham's Indian Eras, p. 15.