पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७४

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अक्षरलिपि । ग्रन्थलिपि । समयसे बट्टेलेत्तूको चाल घटी। अन्तमें सन् ई०के १५वे शताब्दके समय द्राविड़से यह लिपि एकबारगी दाक्षिणात्य में किसी समय धर्मशास्त्र लिखने में जो हो उठ गई। केवल मलबार उपकूलमें सन् ई०के लिपि व्यवहृत होतो थी, उसोको लोग “ग्रन्थ" बोलते १७वे शताब्द तक हिन्दू इस लिपिको व्यवहार करते हैं। यह ग्रन्थलिपि दो तरहको होतो है। तञ्जोर रहे। इसी समय बट्ट लेत्तू अक्षरोंने भी कुछ विकृत हो प्रदेशके ब्राह्मण जिसको व्यवहार करते हैं, वह कितनी कोलेलेत्तू नाम धारण किया, जिन्हें हिन्दू राजा दान ही चतुरस, और अरुकदु और मन्द्राजक पासवाले जैन पत्रों में अङ्कित कर गये थे। तेलिचेरी और निकटवर्ती जिसको काममें लाते हैं, वह वत्तलाकार है। होपवासी माप्पिल्ला उस दिन तक बट्टेलेत्तू ही अक्षर दाक्षिणात्यमें ब्राह्मणों के अधिकांश धर्मग्रन्थ उक्त ग्रन्थ- लिखते-पढ़ते थे, आजकल धर्मको हठसे वह इस लिपि- लिपिसे ही लिखे गये हैं। दाक्षिणात्यके पश्चिमांशमैं को छोड़ अरबो अक्षर काममें लाते हैं। तुलु-मलयालम् नामसे एक दूसरे प्रकारको भी ग्रन्थ- नन्दी नागरी। लिपि बहुत दिनोंसे प्रचलित है; जो केवल संस्कृत दाक्षिणात्यमें जो नागरी लिपि चली थी, वह लिखनेके समय ही व्यवहृत होते देखी जाती है। नन्दीनागरी नामसे प्रसिद्ध हुई। सन् १०३१ ईमें फिर, ग्रन्थलिपिसे ग्रन्थतामिल भिन्न है। ग्रन्थ- अल्वीरुणीने जिस 'सिद्धमाटका' लिपिका उल्लेख तामिलका व्यवहार कृष्णा और गोदावरीके मुहाना किया है, उस समय वह लिपि वाराणसौ, मध्यदेश अञ्चलमें ही अधिकांश प्रचलित है। और काश्मीरमें प्रचलित थी, पौछे वही सन् धामीसे निकली भारतको वर्तमान लिपियां । ई० के ११वें शताब्दमें दाक्षिणात्य पहुंची। इसी आजकल भारतवर्ष में नीचे लिखी जो लिपियां प्रच- से हमें सन् ई०के ११वे शताब्दसे पहले लित हैं, उनका नाम वर्णानुक्रमसे लिखा गया है, दाक्षिणात्यमें सिद्धमाकाका व्यवहार नहीं देख अरौरा (सिन्धु प्रदेशमें), असमीया, उड़िया, अोझा पड़ता, सब कुछ १०वें शताब्दका परवर्ती है। (विहारके ब्राह्मणों में), कणाड़ी, कराढ़ी, काययी, गुज. केवल महाबलिपुरके शालवन्कप्पम् नामक गांवके राती, गुरुमुखी (पञ्जाबमें सिखोंके बीच), ग्रन्थम् निकटवर्ती अतिरणचण्डेश्वरके मन्दिरमें दाक्षिणात्य (तामिल ब्राह्मणों के मध्य), तामिल तुलू (मङ्गलूरमें), लिपिके साथ नागरी लिपि देख पड़ती है। देखते तेलगू, थल (पञ्जाबके डेराजातमें), दोगरी (काश्मीरमें), हो बोध होता है, कि वह लिपि दाक्षिणात्यवासि देवनागरी, निमारी (मध्यप्रदे शम), नेपालो, पराची योंके लिये नहीं, उत्तर-भारतीय तीर्थयात्रियों के (भेरेमें), पहाड़ी (कुमाऊं और गढ़वालमें), बणिया उद्देश्यसे खोदो गई थी। सन् १३११ ई० में दाक्षिणात्य (सिरसा और हिसारमें), बंगला, भावलपुरी, बिसाती, पर मुसलमानोंको चढ़ाई होने और संस्कृतचर्चाको बड़िया, मणिपुरी, मलयालम्, मराठी, मारवाड़ी, मुल- लौलाभूमि विजयनगरको मुसलमानोंके कवलित तानी, मैथिली, मोड़ी, रोरौ (पञ्जाबमें), लामावासी, करनेसे संस्कृत और देशीय साहित्यवाले अधःपतनके लुण्डी (स्यालकोटमें), शराकी या श्रावको (पश्चिमके साथ यहां नागरीका प्रचार भी विरल हो गया। इस बनियोंमें), सारिका (पञ्जाबके डेराजातमे), सईसी समयसे पीछेको दाक्षिणात्य में जो नागरीलिपि (हाल- (उत्तर-पश्चिमके भृत्योंमें), सिंहलो, शिकारपुरी, और 'कन्नड़) पोथी और शासनादि मिलते हैं, उनमें लिपि सिन्धी। इन्हें छोड़ भारतके अनुद्दीपोंम बर्मी, श्याम, पद्धतिको विकृति और अधोगति ही देख पड़ती है। लेयस, काम्बोज, पेगुयान, और यवदीप और फिलि- मराठोंने तञ्जोरको अधिकार कर यहां जो नागरी पाइनमें भो नाना प्रकारको लिपियां चलती हैं। चलाई थी, वह साधारणतः 'बालबोध' नामसे परि- खरोष्ठीलिपि। चित है। युरोपीय पण्डितोंने स्थिर किया है, कि खरोष्ठी-