पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७४९

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खाना ०४२ अभक्ष्य-अभय छिलका होता, उसका मांस खाया जा सकता, परन्तु बनानेसे जल्द पचती नहों और ख नको गर्म कर देतो कुम्भौरादिका मांस अभक्षा है। है। इसीसे हमलोगोंके उष्णप्रधान देशमें विशेषकर उकाब, चौल्ह, ग्ध्र, कौवे, उल्ल, कोकिल, बाज गर्मीके दिनों इन्हें कभी न खाना चाहिये। बहरी, शिकर, राजहंस आदि, चमगोदर, बगला, अभक्षाभक्षण (स'• लो०) निषिद्ध खाद्यभोजन, उष्ट्रक और छातीके बल चलनेवाले पक्षीका मांस नाकाबिल चीज़का खाना। (त्रि.) २ निषिद्ध वस्तु खाना न चाहिये। खाते हुआ, जो नाकबिल चीज खा रहा हो। कुरानमें भी लिखा है, कि जो जानवर रोग या अभग (संत्रि०) आनन्दशून्य, हतभाग्य, ऐश- चोट लगनसे मर जाय, उसका मांस न आरामसे अलग, बदबख्त । चाहिये। जी चिड़ियां चौचसे दबा दबा कर कौड़ोंको अभगत (हिं० ) अभक्त देखो। मार डालती और पन्ने से मट्टी खोदकर चारा खोजती अभग्न (सं• त्रि.) १ भग्न भिन्न, न टूटा हुआ, हैं, उनका मांस खाना अनुचित है। समूचा। २ विक्षेपविहीन, दखल न दिया गया, सूतिकारहमें स्त्रियां अपवित्र रहती हैं, यह बराबर। बात बाइबलमें भी लिखी है। (लिभिटिकम् १२) अभङ्ग (सं० पु०) न भङ्गः, नज-तत्। १ भङ्गका ईश्वरने मूसाको ऐसा उपदेश दिया, कि लड़का पैदा अभाव, पलायनको शून्यता, टका न पड़ना। २ श्लेष- होनेसे सूतिकारहमें स्त्रियां सात दिन अशुचि रहती मूलक शब्दालङ्कार विशेष । ३ मराठी धर्मगौत। हैं। किन्तु लड़को पैदा होनेसे अशुचिकाल एकपक्ष (त्रि.) ४ सम्पूर्ण, अखण्ड। ५ नाशरहित, लाज़वाल, चलेगा। सूतिकारहमें स्त्रियोंके अनेक प्रकार रोग हो न टूटनेवाला। ६ क्रम-विशिष्ट, सिलसिलेवार । जाता है। उनमें कोई कोई रोग बड़ाही संक्रामक अभङ्गुर (सं० वि०) भञ्ज घुरच् भङ्गुरम्, नञ्तत् । होता है। अतएव वैसी अशुचि प्रसूतिके छ लेनेसे चीज न टूटनेवाला, स्थिर, जो टूटता न हो, कायम । खाना न चाहिये। अभज्यमान (सं० त्रि.) भजन न किया जाते हुआ, पियाज और लहसन मनुष्योंके लिये सुपथ्य है जिसका ख्याल न रखा जाये। या नहीं, इसबारेमें बहुत सन्देह है। एलोपैथि- | अभद्र (सं० लो०) भदि इति रक् भद्रम्, नञ्तत्। चिकित्साके पुस्तकों में लिखा है, कि यह दोनों कन्द १ अमुख, दुःख, तकलीफ, बखेड़ा। (त्रि.) न- आग्नेय और उत्तेजक हैं। वैद्यक अन्यों में बहुव्री०। २ अमङ्गल, अमङ्गलकर, अमङ्गलाश्रय, पियाजका गुण यों लिखा हुआ है-यह कड़वा, खराब, बुरा, जो अच्छा न हो। धातुपोषक, पकने पर मधुर, स्निग्ध, वायुनाशक, अभद्रता (सं० स्त्रो०) अमङ्गलाश्रयता, बदमाशी, बलकर, पित्तकर नहीं, कफनाशक, दृप्तिजनक और बुरे बननेको बात। गुरुपाक है। लहसन खारा, मोठा, कण्ठका स्वर अभय (सं० क्लो. ) न भयम्, अभावे नत्र-तत् । बढ़ानेवाला, धातुपोषक, बलकर और विरेचक होता १ भयका अभाव, शान्तिरक्षा, खौफको नामौजूदगी, है। हड्डी टूट जानेसे इसका लेप देने पर टूटी हुई अमनचैन, हिफाजत। २ यज्ञीय गौत विशेष । हडडो जुड़ जाती है। यह रक्त पित्तरोग बढ़ाता है। ३ वोरणमूल, खसको जड़। (पु.) ४ आत्मनिष्ठ, जो लोग पियाज और लहसन राज़ खाते हैं, किसीसे न डरनेवाला आदमी। ५ शिव। ६ धर्मपुत्र- उन लोगोंके मुंहसे इनको कोई निन्दा नहीं सुनी विशेष। यह दयाके गर्भसे उत्पन्न हुये थे। ७ यात्रिक जाती। परन्तु जो लोग कभी किसी दिन इन्हें खा योग विशेष । (त्रि०) नज-बहुव्रौ । ८ भय न लेते, उन लोगोंको इनके कितने ही दोष साफ़ मोलम देनेवाला, जी खौफ न दिलाता हो। e भयशून्य, देते हैं। पियाज और लहसन डालकर तरकारी जिसे डर न लगे 1