पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७५

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अक्षरलिपि ७१ लिपि फिनिक लिपिको अरमीय शाखास निकली है। पण्डितवर बूहलरने कहा है-- 'सकराको शिलालिपि मिलानेसे देख पड़ता है, कि अरमीय 'अलिफ' और खरोष्ठीका 'अ' एक ही जैसा है। इसी तरह अरमौय पेपिरोका 'वे' खरोष्ठी 'व' ; मिश्रके शिलाफलकवाला 'गिमल' 'ग'; मेसो- पोटमियाको शिलालिपि और अरमीय पेपिरीका 'दलेथ्' 'द'; तिमाको अरमोय लिपिका गोलाकार 'हे' ह; तिमाको शिलालिपि और सिसिलीकी सत्रप- मुद्राका 'वाव' 'व'; तिमालिपिका 'ज़ईन' 'ज'; सक्कारा और तिमालिपिका 'चेथ्' 'श' ; 'योद', 'य' ; बाबिलोनीय ‘काफ़' 'क'; 'लमैद' ल ; सक्कारा- लिपि और बाबिलोनीय मुहरका 'मीम' 'म' ; सक्कारा, तिमा, असुरीय और बाबिलोनीय शिला- लिपिका 'नून्' 'न' ; नवतीय अक्षरमालाका ‘समेच' 'स'; सेमेटिक 'फे' 'फ' ; सेमेटिक 'तसदे' 'च'; सेरापियामाको अरमौय शिलालिपिका 'कोफ' 'ख' ; सकारालिपिका 'रेष' 'र'; प्राचीन असुरीय लिपिका 'तो' '४'; और सकारालिपिका 'तो' 'ट'के बराबर है। इसी तरह बूहलर साहबने यह प्रमाणित करनेकी चेष्टा की है, कि खरोष्ठी-लिपिके बीस अक्षर फिनिक या सेम टिक लिपिसे निकले हैं। पूर्ववर्ती पाश्चात्य ऐतिहासिकोंमें से इस खरोष्ठी लिपिका किसौने बक्त्रो-पाली ( Bactro-Pali ) या इण्डो-पाली और किसीने गान्धारी नाम लिखा है किन्तु समवायाङ्ग और ललितविस्तरमें गन्धर्व या गान्धारी लिपिका पृथक् उल्लेख रहते और पालौलिपि- के ब्राह्मोसे अलग होते भो खरोष्ठी एक स्वतन्त्र और प्रा. चौन लिपि ही समझ पड़ती है। उत्तर-पश्चिमान्तके शाहबाज़गढ़ी और मानसेरा प्रभृति स्थानोंसे सम्राट अशोकको जो दक्षिण से वाममुखी यानी विपर्यस्त लिपि निकली, वही खरोष्ठी कही जाती है। आश्चर्य- का विषय है, कि हिन्दूकुशके उत्तर बलख (बक्त्रिया) तक भी इस लिपिका कोई सन्धान नहीं मिलता। प्राचीन गन्धार राज्यमें प्रचलित रहनेसे ही कनिहमने 'गान्धार-लिपि' नाम रखा है। किन्तु बूहलर, राप्- सोन प्रभृति आजकलके सभी पाश्चात्य पुराविदोंने इसे खरोष्ठी ही माना है। किन्तु हम कनिहम्की भांति इसे “गान्धार" या ललितविस्तरोक्त गन्धर्वलिपि कहने- को प्रस्तुत हैं। आर्यावर्त्तमें ब्राह्मोलिपिसे जैसे मागधी, अङ्ग, वङ्ग प्रभृति भारतीय लिपिकी सृष्टि हुई, उसी तरह पुरानो खरोष्ठीसे गन्धर्व, किन्नर, दरद, शकारि, खास्य, हूण, यक्ष, असुर (Assyrian), अर्द्धधनु (Cunei- form); उत्तरकुरु और उत्तरमद्र (North Median) प्रभृति सुप्राचीन लिपियां परिपुष्ट हुई थीं। खरोष्ठीको इतनौ प्राचीन बतानेका क्या कारण है ? प्रत्नतत्त्वविद् कनिहम्ने लिखा है-पारसिकोंके आदिधर्मग्रन्थ आवस्तावाले मन्त्र या उसकी गाथायें जरथुस्त्र (Zoroaster)ने सङ्कलित की थीं। दारअवुस विस्तास्य (Darius Hystaspes)के समय वहो मन्त्र या गाथायें किसी प्रचलित लिपिमें लिखो गई। इसी लिपिने जरथुस्खके नामानुसार 'खरोष्ठी' नाम पाया होगा । यह लिपि दक्षिणसे वामदिक्को यानी विपर्यस्त क्रमसे लिखी जाती है। प्रत्नतत्त्वविद कनिहमके दारअवुसवाले समयमें खरोष्ठीको सृष्टि लिखनेपर भी हम इस बातको ठीक नहीं बताते ; कारण, लिपितत्त्वविद् बूहलरने जब आप हो मान लिया है, कि अरमीयलिपिसे भी खरोष्ठीके कोई-कोई अक्षर पुराने हैं, तब यह कैसे कहेंगे, कि पारस्यपति दारअवुसके समय और खुष्ठ जन्मसे छः शताब्द पहले खरोष्ठी उत्पन्न हुई थी ? अरब देशके ऐतिहासिक मसूदीने सन् ई० के १० वे शताब्दमें लिखा है, कि जरतुस्त-प्रचारित जन्द अवस्ता १२००० गोचर्मपर उन्होंको उद्भावित अक्षर- लिपिसे लिखो गई थी। भारतीय भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व ) और पारसिक आदिधर्म पुस्तक अवस्ताको पढ़नेसे भी मालूम होता है, कि सौरोंके वीच अग्निपूजाप्रवर्तक जरशस्त्र या जरथुस्त्र 'मग' 'मगुस' या 'मधुस' नामसे प्रसिद्ध थे। सन् ई०से पहलेके ५वे शताब्दमें प्रसिद्ध यूनानो ऐतिहासिक हेरोदोतस्ने लिखा है, कि शाकद्वौपियोंके बीच आरिअस्य (Ariaspa) (आर्जख) शाखाने बहुत - 1 1