अभिधानक-अभिधेय प्रकाश जैसी और कुछ हेमचन्द्र के नानार्थ जसौ है। अभिधामूला व्यञ्जना कहते हैं। पहले सयोगादि जान पड़ता है, मेदिनीकरके समयमें भारतवर्षक हारा नियमित अर्थ बोध कराते, अभिधा शक्ति मनुष्य जलपथसे ब्रह्मदेश जाते थे। इसीसे उन निवृत्त होनेपर विशेष पर्यालोचना हारा अन्य अर्थ लोगोंको मघ-देशक एक हीप होनेका विश्वास रहा। समझने अर्थात् पूर्व अर्थका बोध न होनेसे, पोछेका मेदिनौकरने लिखा है, 'मधी दीपान्तरै'। मघदेश अर्थ नहीं लगता। इसलिये उसे अभिधामूला व्यञ्जना होपान्तर विशेष है। यह कोष कई स्थानों में विश्व कहते हैं। जैसे रामलक्ष्मण कहनेपर साहचर्य हेतुसे प्रकाशका अनुकरण मात्र है। पहले दशरथके पुत्रका ही बोध होता है, पीछे पर्या- शाश्वतका नानार्थसमुच्चय अति प्राचीन ग्रन्थ है। लोचना हारा राम शब्दसे अन्य राम भो समझ पड़ते जान पड़ता है, यह खुष्टीय बारहवों शताब्दी में हैं। किन्तु पूर्व बोध न होते यह पर बोध भी न सङ्कलित हुआ था। नानार्थध्वनिमञ्जरी, माका होनेसे अभिधामूला व्यञ्जना कहना होगा। कोष, एकाक्षरकोष, अव्ययकोष, उणादिकोष प्रभृति | अभिधाय (सं० अव्य० ) कहकर, पुकारके । अभिधान बहुत दिनोंके रचे हुए नहीं हैं। अभिधायक (सं० त्रि०) अभिधत्ते अर्थ धारयति, कोष शब्दमैं विस्तृत विवरण देखो। - अभि-धा-खुल। कहने, बोलने, बताने या समझाने- अभिधानक (सं.क्लो०) शब्द, कोलाहल, आवाज, वाला; जोनाम लेता, पुकारता या बयान् करता हो। शोरगुल। अभिधायकत्व (सं० क्लो.) द्योतक होनेकौ दशा, अभिधानत्व (सं० लो०) नामको भांति उपयुक्त जिस हालतमें जाहिर हो जाये। होनेको स्थिति, जिस हालतमें इस्मकी तरह इस्तेमाल अभिधायिन् (स' त्रि०) अभि दधाति, अभि-धा- किया जाये। णिनि-युक् । शब्दप्रयोगकर्ता, लफ्ज इस्तेमाल करने- अभिधानी (सं० स्त्री०) अभिधीयते आभिमुख्य न ध्रियते वाला। (स्त्री०) डोप् । अभिधायिनौ। स्थाप्यत इति यावत् वस्तुबन्धनेन अनया, अभि-धा अभिधावक (सं० वि०) आभिमुखान धावति, अभि- करण लुघट। रज्ज, रस्सी। धाव भावे खुल। १ सम्मख वेगसे गमनकर्ता, जो अभिधानीय (संवि०) नाम लिया जानेवाला, सामने झपटकर चलता हो। २ आक्रमणकारी, जिसका इस्म आग आये। हमलावर, टूट पड़नेवाला। अभिधामूल (सं० वि०) शब्दके अक्षर-सम्बन्धोय अभिधावन (सं• क्लो) शीघ्र गमन, अन्वेषण, आखेट, अपर प्रतिष्ठित, जी लफज के हरफी मानौपर आक्रमण, दौड़-धूप, जुस्तजू, शिकार, हमला। कायम किया गया हो। अभिधित्सा (सं. स्त्री०) अभिधातुमिच्छा, अभि- पभिधामूला (सं० वि०) अभिधा-शक्तिविशेषो मूलं धा-सन् अ टाप्। विवक्षा, कहनेको इच्छा, बोलनेको यस्याः। अलङ्कारके मतसे, व्यञ्जना वृत्तिविशेष। इस खाहिश। स्थल में 'अभिधाश्रया' शब्द भी व्यवहृत होता है। अभिष्णु (स. त्रि०) अभिधर्षितुं शौलमस्य, अभि- धृष-न। अत्यन्त धर्षक, निष्योड़नकारी, आस्फालन "अभिधा लक्षणामूला शब्दस्य व्यसना विधा। अनेकार्थस्य शब्दस्य संयोगायनियन्त्रिते ॥ कर्ता, जे.र मजबूर या मगलब करनेवाला, जो एक वाऽन्यधीहेतुळजना साभिधाश्रया ॥" ( साहित्यदर्पण) दबाता हो। व्यञ्जनावृत्ति-अभिधामूल एवं लक्षणामूल दो अभिधेय (सं० त्रि०) अभिधीयते अभिधावृत्या ज्ञायते, प्रकारको है। इनमें अनेकार्थ शब्दका कोई अर्थ अभि-धा कर्मणि यत्। १ वाच्य, सङ्केत-युक्त, कहा संयोगादि द्वारा नियमितरूपसे प्रतिपादित होनेपर, जानेवाला, जिसपर इशारा किया जाये। उससे अन्य कोई अर्थ जिस कारण समझा जाता, उसे 'अर्थोऽभिधयो वै वस्तु प्रयोजननिवृत्तिषु।' (अमर) Vol. I. 190