पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७६६

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अभिनन्दनीय-अभिनय ७५९ अभिनन्दनीय (संत्रि.) अभिनन्दयते, अभि-नन्द- णिच्-अनौयर्। प्रशंसनीय, उत्साह द्वारा प्रवर्तनीय, तारीफ़ करने काबिल, जिसे हौसलेके ज़रिये रागिब बनायें। अभिनन्दा (सं० स्त्री०) प्रसन्नता, इच्छा, खुशी, मरज़ी। अभिनन्दित (सं० वि०) अभिनन्द्यते स्म, अभि-नन्द- णिच-क्त। प्रशंसित, अनुमोदन द्वारा प्रोत्साहित, जो खुश हुआ हो, जिसकी तारीफ रहे। अभिनन्दिन् (सं० त्रि.) अभिनन्दति, अभि-नन्द- णिनि । १ सन्तोषशील, खुश रहनेवाला। प्रेरणे णिच् णिनि। २ अनुमोदन द्वारा उत्साहवर्धक, तारोफ करके हौसला बढ़ानेवाला। (स्त्री०) अभिनन्दिनी। अभिनन्दन (सं• त्रि.) अभिनन्दाते प्रशस्यते, अभि- नन्द-णिच्-यत्। १ प्रशंसनीय, सारीफके काबिल । "दावष्यभूतामभिनन्दासत्वौ।" (रषु ॥३१) (अव्य०) अभि-नन्द- णिच् ल्यप् । २ प्रशंसा करके, तारीफ सुनाकर । अभिनभ्य (वै० अव्य.) मेघ अथवा आकाशको ओर, बादल या आसमान्को तर्फ । अभिनम्र (स.नि.) आभिमुख्यन ननं नतम्, प्रादि-स०। अभिमुखमें नत, झुका हुआ, ख़मदार, जो खूब टेढ़ा पड़ गया हो। अभिनय (सं० पु०) अभिनयति द्वगतभावान् प्रका. शयति, अभि-नौ कर्तरि अच् । १ मनके क्रोधादि भावको प्रकाश करनेवाली अङ्गको चेष्टा। भावे अच् । २ शरीरको चेष्टा हारा अनुरूप करण । सजधजकर नकली हावभाव आदि कामों द्वारा किसी विषयका प्रवत अनुकरण करके देखानेको अभिनय कहते हैं। किन्तु अभिनयमें बाहरौ काम देखाना उतना अभिप्रेत नहीं होता। प्रक्त मनका भाव व्यक्त करना ही इसका प्रधान उद्देश्य है। राधिका मान करके बैठी हैं, उन्हें मनानेके लिये श्रीकृष्ण किस तरह उनका पैर पकड़कर भूमिपर लोट रहे हैं। इसी तरहको अनेक बातोंके ठीक 'अनुकरण करनेको अभिनय कहा जाता है। नाव्यशास्त्रके मतसे अभिनय चार प्रकार सम्पन्न किया जाता है। यथा-१ आङ्गिक, २ वाचिक, ३ आहार्य, ४ सात्विक । नेत्र और मुखके भाव तथा हस्तपादादि अङ्गको चालना द्वारा किसी प्रकत विषयके अनुकरण करनेको आङ्गिक कहते हैं। नाट्यशास्त्रप्रवीण व्यक्ति बताते हैं, जिस तरह नाचनेके समय नानाप्रकार कौशलसे हाव भाव सहित हस्त, पद, और कटि प्रभृतिको चालना करनेसे नाच बहुत सुन्दर दिखाई देता और दर्शकका नयन-मन भौ प्रसन्न और मुग्ध होता, उसी तरह विशेष विशेष स्थानमें जब जैसे चाहिये, तब तैसे ही कौशलसे हाव भाव द्वारा हस्त पदादिको चालना करनेसे अभिनय भी सुन्दर होता है। जब नट वा नटौ किसीसे बैठनेको कहेंगे, तब भी हाथ उठाकर बोलनेके वक्त कुछ भाव होना चाहिये। पुरुष पुरुष जैसे मुख आदिका भाव प्रकाश करेंगे और स्त्री स्त्री जैसे। इसी प्रकार बाल, वृद्ध, भृत्य, आदि सबके अपने अपने स्वभावा- नुसार हाव भाव करनेसे दृश्य मनोहर होता है। नाट्यरसन्न व्यक्ति यह भी कहते हैं, कि समय और स्नेहादिका पात्र समझकर विशेष विशेष रूपसे हाव भाव देखाना चाहिये। शोक क्रोध आदिके समय जैसा हाव भाव बनाना होता, सदालाप और परि- हासके समय उस प्रकारके हाव भावका आवश्यकता नहीं पड़ती। फिर प्रियाके साथ प्रिय सम्भाषण करते समय एक प्रकार और पुत्रके साथ वात्सल्य भाव प्रकाश करते समय दूसरे प्रकार हाव भाव आवश्यक आयेगा। किन्तु वोरकार्य प्रभृतिमें अभिनेवगणको अतिरिक्त वाचाल और उहत न होना चाहिये। राम, लक्ष्मण और सौता चित्रपट देखती हैं। इधर उधर देखते देखते लक्ष्मण कहने लगे,-"इयमार्या, व्यमार्या माणवी, यमपि वधूः श्रुतकीर्तिः।" यह आर्या जानको यह आर्या माण्डवी और यह वध श्रुतकीति है। लक्ष्मणने राम, भरत और शत्रुघ्नको स्त्रीको अङ्गलौसे सङ्केत करके देखाया, अपनी पत्नीको देखाने में लज्जा परन्तु जानको कब चुप रहनेवालो थों! उन्होंने पूछा,-"वच्छ र भवरा का?". देवर ! यह बइ किसकी है। यहां परिहास करनेके लिये सीता क्रिस 1 लगी।