पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७७०

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अभिनय । । शोक समयवाला विलाप रङ्गभूमिको दूसरी विपद्- का स्थल है आजकल लीलामें इस विपदके स्थल अनेक मिलेंगे। रामचन्द्रने सौताके लिये जो विलाप किया, उसे सुनकर विरक्ति उत्पन्न होती है। नाटकमें नायक-नायिकाका चरित्र बनाना सबसे बड़ा काम है। मनुष्यको शोकके समय कातर होते भी अपना चरित्र न बिगाड़ना चाहिये। इस देशको लीला प्रभृतिमें परिहास करनेके लिये अभिनेगण स्वांग लाते हैं। अश्लीलता, वाग्वितण्डा और कुत्सित वेशभूषा छोड़ हास्यरसो- दीपक कौतुककर व्यापारसे यह काम करना आवश्यक है। ऐसा करनेसे ही अभिनय लोगोंका अधिक आनन्ददायक लगेगा। दृश्यकाव्य, नाटक एवं लीलाके विषय रङ्ग भूमिमें जो व्यापार दिखाया जाता, वही अभिनय है। जिस रङ्गभूमिमें पटक्षेपादि द्वारा कार्य सम्पन्न होता है, उसे हमलोग नाटकाभिनय कहते हैं। इसीतरह खुली सभामें जहां पटक्षेपादि न हो, उसे लौला या यात्रा कहेंगे। किन्तु पहले यह प्रभेद न रहा। उस समय नाटकाभिनयको भी लोग यात्रा कहते थे। विदर्भनगरमें कालप्रियनाथ नामक महा- देवके निकट जब पहले पहल उत्तरचरितका अभिनय हुआ, तब भवभूतिने नान्दीसे कहा था, "अद्य खन्नु भगवत: कालप्रियनाथस्य यावायाम् ।" प्राचीन कालमें नाटक आदिका अभिनय करनेके लिये राजाओंकी राजधानियों में नटनटी एक विशेष जाति रही। पुरुष पुरुष और स्त्री स्त्रीका अंश अभ्यास करके रङ्गभूमिमें अभिनय करती थी। स्त्रियोंका प्रस्ताव अभिनय करनेके लिये पुरुषोंको स्त्रौवेश पारण करना पड़ता था। परन्तु रणभूमि और नेपथ्यको अवस्था निश्चित करना कुछ कठिन है। इस समय जैसे रङ्गभूमिके पौछ नेपथ्य और सामने यवनिका रहती एवं एक एक दृश्य समाप्त होनेपर पटक्षेप किया और अङ्क सम्पूर्ण होनेपर यवनिका गिराई जाती है। पहले क्या यह प्रणाली प्रचलित थी अथवा वेश बदलनेको कोठरीके सामने पर्दा पड़ा रहता था ? सब स्थानों में इसका ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता। इस समय यात्रामें एकदल सज जानेसे उसके सब आदमी सभामें ही बैठे रहते हैं, किन्तु पहले यह रीति न रही। अपना अपना काम करके सब नेपथ्यमें चले जाते थे। “ततः प्रविशति यथोक्ष- व्यापारा सह सखीभ्यां शकुन्तला। निष कान्तः।" उपरोक्त प्रयोग- हारा वह साफ समझा जाता है। फिर “प्रविश्यापटो-वेपेच चित्रफलकहस्ता-इत्यादि प्रयोग देखनेसे बोध होता है, कि नेपथ्यको छोड़कर इस समयको रङ्गभूमिको तरह उस समय भी पटक्षेप किया जाता था। बहुत समयसे भारतवर्षमें अभिनयकार्य प्रचलित है। संस्कृत भाषामें भासने सबसे पहले नाटक लिखा था। इस पुस्तकका कालनिर्णय करनेसे मालम होता है, कि सवा दो हजार वर्ष पहले इस देशमें नाटकका अभिनय आरम्म हुआ होगा। भास देखो। लोग कहते, कि सन् ५८० ई० में चीन-सम्राट वानतीने अभिनय निकाला था। किन्तु सम्राट् वुअन्- सङ्गने अभिनय-आविष्कारके लिये अधिक आदर पाया। इनका समय सन् ७२.ई. रहा। चीना अभिनय सन् ७२० और ८०८ ई के बीच अधिक लिखे गये थे। फिर सन् ८६० और १११८ ई०के बीच दूसरे चौना अभिनय बने। अन्तमें सन् ११२५ और १३३७ ई के बीच भी चोना अभिनयकी धूम पड़ गयी थी। सन् ई के ईठे शताब्द जापानमें कितने ही अभि- नय चीना अभिनयों को देखकर पहले-पहल बने थे। किन्तु जापानी कहते, कि सन् ८०५ ई० में जब भाग्ने यगिरि भड़का, तब वहां अभिनय शुरू हुआ। सन् ११०८ ई के समय जापानमें इसो नो जेनी नानी कोई बुढ़िया रही, जिसे लोग अभिनयको माता कहते थे। श्याममें अभिनय भारतसे ही जा पहुंचा है। फिर यवद्दीप और सुमात्रा दीपमें जो अभिनय होता, वह भी भारतीय अभिनयसे मिलता है। इसलिये कह सकते, कि इन लोगोंने भारतके हो अभिनयका अनु- करण अपने देशमें किया है। पूर्वकाल ईरानमें अभिनयका प्रचलन न रहा, किन्तु