पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७८

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अउ ए भी अंक ख ग घ च छ ज झ ञ ट ठ डद ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह अक्षरलिपि ७४ उन सुप्राचीन यूनानो ऐतिहासिकोंके निकट फिनिक- आविष्कृत और अशोक, यवन, शक और कुषण- ही लिपिमालाके प्रवर्तक माने गये हैं। वास्तवमें राजोंके समयमें व्यवहृत खरोष्ठी लिपियों को इकट्ठा उनके अभ्युदयसे बहुत पहले विपर्यस्त या खरोष्ठीलिपि करनेसे हमें ३८ अक्षर देख पड़ते हैं ; जैसे- को उत्पत्ति हुई थी। अब हम समझते हैं, कि ब्राह्मी- लिपि जैसे भारत, ब्रह्म लङ्गा, औरभारत-महासागरीय होपोंमें प्रचलित पुरानो लिपियोंको जननी, खरोष्ठी खरोष्ठो जिस भाषामें पहले व्यवहृत होती थी, भी वैसे ही सब विपर्यस्त लिपियोंकी माता है। कहते उस अवस्ता वाली सुप्राचीन गाथाको आलोचना करने- हैं, कि फिनिकों होने पहले यह लिपि ले जा युरोप से आ, ई, ऊ, ए, औ यह पांच अक्षर अधिक पाये में चलाई थी और इसीसे वह यूनानियोंके निकट जाते हैं। सुतरां खरोष्ठौके ४३ अक्षरों में से फनिकों- अक्षरलिपिके उद्भावयिता समझे गये । जैसे मोाब ने अपने-अपने व्यवहारोपयोगी केवल बोस अक्षर ले और सिदोनमें फिनिकोंको प्रचारित लिपिके परस्पर लिये थे। संस्कृत-शास्त्र में ५०से अधिक अक्षर रहते भी वाले रूपका कालवशसे पार्थक्य हो गया था, वैसे ही साहित्यिक हिसाबसे नहीं, बङ्गालियों का उच्चारण अशोकको व्यवहृत खरोष्ठौके साथ उक्त लिपियोंका भी लेनेसे जिस प्रकार इस देशमें ३०१३२ अक्षरों से अधिक पार्थक्य देखने में आया। जिस तरह स्थान और काल आवश्यक नहीं माने जात [ बंगला भाषा देखो। ] और वशसे सेवीय और बोखतानको सेमेटिकलिपि* मो जिस प्रकार वङ्गलिपि ब्राझोलिपि को हो सन्तति है, आब, सिदोन और अरमाको लिपिसे बहुलांशमें पृथक् उसी प्रकार आवस्तिक धर्मशास्त्र में ४४ अक्षरोंका व्यव- हो गई, उसी तरह अशोकको व्यवहृत खरोष्ठौके हार रहते भो फिनिकों के व्यवहार, बोससे अधिक न साथ दूसरे स्थानों को विपर्यस्त लिपियोंका भी पार्थक्य आये ; किन्तु यह २३ अक्षर आदि खरोष्ठी लिपिको देखने में आता है। टेलर, बूलर प्रभृति लिपितत्त्वविद् ही सन्तति हैं। एशियामाइनर या अरबको प्राचीन लिपिके साथ अ अब युरोपीय जिस तरह अपनी-अपनो देश- शोकको विपर्यस्तलिपिके सादृश्य-स्थापनमें जो अग्रसर प्रचलित लिपिको उत्पत्ति मानते हैं, वही विषय हुए हैं, वह कितनी हो कष्टकल्पना मात्र है, उनका आलोच्य है। युरोपीय लिपितत्वविदोंने अक्षरलिपिको उद्देश्य सिद्ध नहीं होता। सृष्टिसे पहले इस तरह साङ्केतिकलिपिको उत्पत्ति दूसरी बात यह है-प्राचीन फिनिकलिपियोंमें मानी है- बोससे अधिक अक्षर पानेका कोई उपाय नहीं, उन अक्षरलिपिके पूर्ववर्ती साईतिक चिह्न । बीसे अक्षरों के नाम हैं-अलिफ, बेथ्, गिमेल, दलेथ्, प्राचीन युगवाली मनुष्यप्रकृतिके इतिवृत्तको आ- हे, वाव, जईन्, चेथ्, योद्, काफ्, लमेद, मौम्, नून, लोचना करनेसे स्पष्ट हो हृदयङ्गम होता है, कि समेछ, फे, छ'दे, कोफ्, रेष, यिन्, और तो। इन मानवजातिको उन्नतिवाले क्रमविकाशके साथ हो साथ बौस अक्षरोंका उच्चारण ले यथाक्रमसे अ, ब (वर्गीय), लिपि कार्यको आवश्यकता अनुभूत हुई थी। वह एक ग, द, ह, व (अन्तःस्थ), ज, च, य, क, ल, म, न, स 'क' चिह्नमात्र अभावमोचनके लिये लिखने लगे। वह प, छ, ख, र, ष, और त या ट यही अक्षर निकल विशेष-विशेष कार्यानुष्ठान और समय विशेष निर्धारण सकते हैं। किन्तु भारतको उत्तरपश्चिम सौमासे करने और अनुपस्थिति या जिनके साथ सहजमें

  • फिनिकराज समितिकास्से समितिक या सेमेटिक नामको उत्पत्ति

साक्षात्कारको सुविधा न थी, उन व्यक्तियोंके निकट हुई है। इसलिये फिनिक और समितिक दोनो एक हो हैं। भाव विशेष ज्ञापनके लिये साङ्केतिक चिह्नोंका प्रयोजन + Taylor's Alphabets, Vol. I. Indische Pale समझते रहे। उसो आदिम युगके अधिवासी अपने- graphie, ron G. Bihler नामक ग्रन्थ देखना चाहिये। अपने अस्त्र, शस्त्रादि, अपने-अपने पाले गवादि पशुओं-