पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अक्षितर-अक्षोट ६१ और 5। आंख-भौं। 1 सिद्ध ठीक को। amatic trough) डुबाकर रखना चाहिये। इसके बहुत बड़ा नहीं होता। साधारणतः १२, १३ हाथ बाद क्लोरट-अब-पोटासको शोशी गर्म करनेसे ऊंचा देखा जाता है। इसका फूल सफेद रहता है। अक्सिजन अलग हो न्यूमेटिक-ट्रफको शोशीमें आ लोध देखो। गिरता है। अक्षिचव (सं० क्लो०) अक्षि-भू-अच् । भ्रुवौ च अक्षिणी प्रायः समस्त अम्ल, क्षार और लवण द्रव्योंको गर्म च ; राजदन्तादि। समा० इ० [पा ५४७७]। अक्षि करनेसे अधिजन मिलता है। सबने देखा है, कि लोहेकी चीज़ कुछ दिन पड़ो रहनसे ज़ङ्ग लग जाती अक्षिव (सं० पु०) अक्षि-वा-क। १ समुद्रका निमक। है। इसका प्रकृत कारण यही है, कि वायुका अक्षि २ सहिजनका पेड़, शोभाञ्जनवृक्ष । [ सहिजन देखो।] जन सदा लोहेकी चीजमें लगनेसे वह जला करती अक्षिविकूणित (सं० लो०) अक्षणः विकूणितं सङ्कोचो और इसीसे शीघ्र नष्ट हो जाती है। इसी जीर्णावस्था यत्र । कटाक्षपात, अपाङ्गदर्शन । नजारा । का नाम जङ्ग या मोरचा लगना है। अक्षौण (सं० वि०) न-क्षोण। जो न घटे। जो कम सन् १७७४ ई० में डाकर प्रष्टिलौने इस बाष्यको न हो। अविनाशी । नाशरहित । आविष्कार किया था। इसके बाद सन् १७७८ | अक्षीव (सं० क्लो०) नक्षीव-क्त । अनुपसर्गात् फुलदीव .ई में डाकर लेवोसियोने इसकी क्रिया-प्रणाली कृशोल्लाधाः। पा ८।२।५५] | इति निपातनात् १ अनुन्मत्त, जो मतवाला न हो। २ शोभाजन वृक्ष, आषिजनका गुण उत्तेजक है। थोड़ासा हो सहिजनका पड़। ३ चैतन्य। ४ धीर। ५ शान्त। सूचनेसे नाडी पुष्ट और वेगवती हो जाती है। शरीर- ६ समुद्रलवण, समुद्रका निमक । से पसीना निकला करता और स्फूर्ति उत्पन्न होती अक्षु (सं० क्लो०) अक्ष-उ । शीघ्र । है। किन्तु अधिक सूंघनेस प्राणान्त हो जाता है। अक्षुम (सं० त्रि०) १ अनाड़ी, बेसमझ। २ अमग्न, लाश चौरनेसे देख पड़ता, कि सब नसोंका उज्ज्वल- ३ समूचा, पूरा। ४ अच्छिन्न । ५ लाल वर्ण हो गया है। अकुशल । ६ मूर्ख। नाना प्रकारके रोगोंमें यह द्रव्य काम आता है। अक्षुध्य (सं० त्रि०) न-क्षुध्-यत्। १ क्षुधाहारी, वह यक्ष्मा, मधुमेह और कासश्वासमें इससे बड़ा उपकार वस्तु जो भूख हर ले। क्षुधाहारो द्रव्य। अग्निमान्य- होता है। कार्बोनिक एसिड, ईथर, क्लोरोफ़र्म प्रभृति कर द्रव्य । द्वारा विषाक्त हो जानेपर अक्षिजेन सूघनेसे अनेक अक्षुवेध (सं० लो०) तीर या बळ मारनेका एक भेद। स्थलोंमें मुमूर्षु व्यक्तिके प्राण बच गये हैं। अक्षेत्र (सं० लो०) अप्रशस्तं क्षेत्रम्, नञ्-तत्। अक्षितर (सं० क्लो०) अक्षि-तृ-अच् । १ अांखके समान १ अप्रशस्त या अनुर्वरा क्षेत्र। २ अयोग्य पात्र । ३ निर्मल । २ साफपानी, परिष्कार जल । अमेधाः। ४ अयोग्य शिष्य। ५ वह भूमि या हृदय, अक्षितारा (सं० स्त्री०) आंखको पुतली। जिसमें अच्छा फल उत्पन्न न हो सके। अक्षिपटल (सं० पु०) आंखका परदा। आंखके कोएको अक्षेत्रविद् (सं० वि०) न क्षेत्र-विद्-क्विप्। तत्त्वज्ञान- शून्य । जो अवस्था या पात्र समझ न सके। अक्षिभू (सं० स्त्रो०) अक्षण: नेत्रस्य गतो भूापारः । अक्षेत्रिन् (सं० पु०) न क्षेत्र-इन्, नञ्-तत् । अक्षेत्री । प्रत्यक्ष ज्ञान। आंखों देखी बात । क्षेत्रहीन। वह पुरुष जिसके क्षेत्र न हो। “अक्षिभेषज (सं० क्लो०) अक्षणः भेषजम् ६-तत्। १ चक्षु- अक्षम (सं० पु.) अमङ्गल । अशुभ। अकुशल। रोगको दूर करनेवाला औषध । २ पठानी लोध या बुराई। खतरा। लोधका पेड़ (Symplocos crataegaites)। यह वृक्ष अक्षोट, अक्षोटक (सं० पु०) अक्ष-प्रोट, कन् स्वार्थे । जो टूटा न हो। झिल्ली।