पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/११

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कपोत सम्मुखवालो भङ्गलिको भांति समसूत्रपातसे अवस्थान और सेठ-साइकार इसे यथेष्ट करसे क्रीड़ादिके लिये करती है। नख दण्डोपवेशी पक्षीको, भांति वक्र रख लेते। उस समय लोग कपोतको बहुत अश रहते हैं। फिर अङ्गुलि भी दण्डोपवेशी पक्षीको समझते और उड़ा पामोद करते थे। -भांति अन्चिल होती हैं। किसी किसी श्रेणीवाले हिन्दुस्थानमें बालक इसे उड़ा खेन्ना करते हैं। कपोतके समस्त पादपर पालक निकल पाते हैं। कपोत उड़ाने के लिये ग्रहके सर्वापेक्षा उच्च प्राचौर वा हिन्दूस्थानमें कबूतर खेलके लिये पाला जाता किसी वृक्षको अवं शाखापर वल्ली गाड़ना या बांधना हैं। इसीसे इसका व्यवसाय चला करता है। केवल पड़ती है। इस बल्लीपर एक चौकोन छतरी लगती हिन्दुस्थानमें ही नहीं, पृथिवौके सकल स्थलपर कपोत । क्षपोत उड़नेसे इसी छतरी पर पाकर बैठता मनुष्यके श्रालयमें पलता है। । छतरीमें कपड़े का जाल रहता है। इस जान्नमें शाकुनधास्त्रके अनुसार पालक वा व्यवसायी एक डोरी लगती, जो भूमिपर चटका करती है। 'इसकी श्रेणी भाकार, कार्य एवं गुणादि देख होरी नीचेसे खींचनेपर , छत्तरोका जाल पारो श्रोते विभाग करते हैं। इसको माय: दो जाति हैं जपरको उभर बन्द हो जाता है। जब कोई बाहरी गोला और गिरहबाज़। इन दो जातिके कपोत कबूतर भूलसे पा छतरीपर वैठता, तब खेलाड़ी नौसे फिर पनिक विभागमें बंटते हैं। गोलावोंमें लका, डोरी बँचता है। इससे छतरीका जाल बन्द होवे • गुल्ली, चौराजी, कौड़ियाला, वुग़दादी, सुक्खा, बाख ता, हो कबूतर फंसता है। फिर छतरीको गरारी ढीली काबरा, सूगिया, लोटन प्रमति प्रधान हैं। कार उतार देते और नवागत कपोतको पकड़ लेते हैं। हिन्दुस्थानी लोगोंके घरों और मठोमें एक यह अपना स्थान खू व. पहचानता है। कलकत्तेके प्रकारका गोला स्वयं अयाचित रूपसे रहा करता कबूतर मिर्जापुर और अलाहाबादसे छूटते भी अपने है। उसे मङ्गली कबूतर कहते हैं। यह नाना वर्णका स्थानपर भा पहुंचते हैं। वर्तमान युरोपीय महा. होता है। इसका मूल्य अति अल्प है। समरमें इसने इधरसे उधर पत्र पहुंचाने में बड़ा गिरहबानों में कागजी, सना, नीला, स्याहा, साहाय्य किया है। पूर्व समय भो कबूनर हरकारेका अवलका, सुर्खा, सादा, अदा, भूरा, गण्डेदार, दोबाज कास करते थे। उर्दू के किसी कविने कहा है- वगैरह अच्छे समझे जाते हैं। "श्व कबूतर किस तरह ले नाये बामेयार पर। गोला और दोवाल देखते ही पहुंचान पड़ता है। पर कतरनेको खगोपियें दीवार पर " -गोलेसे गिरहवानको चोंच साफ होती है। फिर काठ या बांसके जिस घरमें इसे रखते, उसको गोलेके चतु, सर्वदा शान्त भाव रहता, किन्तु काबुक कहते हैं। इसमें एक-एक जोड़ा कबूतर -गिरहबाज़ अपनी आंख घुमाया करता है। रहनेको दरवे बने होते हैं। उन्होंमें खेलाड़ी इसे गिरहबान पैरम पर थानेसे झबरा और सत्ये पर खिता-पिला सन्ध्याको बन्द कर देते हैं। हिन्दु -चोटी बढ़ जानसे चोटियाला कहाता है। फिर स्थानमें प्रायः कबूतरको अकरा खिलाया जाता है। पैरमें पर और मत्स्य पर चोटी दोनों होने से इसको हिन्दुस्थानमें से थोतला, यमा, श्वेमा वा शोथ भावरा-चोटियाला कहते हैं। रोग अधिक लगता है। शीतला निकलनेसे कपोतो पहले हिन्दुस्थानमें कपोतके असंख्य भेद रहे। जसमें भीगने देना न चाहिये। फिर तारपौनका देव किन्तु आजकलको श्रेणियों को देख प्राचीन नामोंके | चुपड़ने उक्त रोग आरोग्य होता है। शोध बढ़नेपर निर्णय करनेवा कोई उपाय नहीं। प्राचीन कवियों इसे रौद्रमें रखते और लहसुनका एक वोज खिलाया के काव्यमें प्रमाण माता, कि पुराने समय भी हिन्दु करते हैं। भापर भो यही पोषध चत्तता है। यहा सागमें कपोत. पाता जाता था। राजा-महाराज होनेसे सरसों के तेलका फलोसा जता भन खिसावा