पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१५१

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१५२ कर्म द्वारा प्रकाश पाता, वह निवत्वं कहाता है। जैसे पाप लगने और करनेसे कोई फल न मिचनेका मत वह चटाई बनाता है। यहां चटाई पहले न रहो, कोई कोई पण्डित मानते हैं। किन्तु वास्तविक उक्त पोछे उत्यत्ति हारा पात्मलाभकर प्रकाशित हुयी। विषय अमूलक है। कारण नित्य और नैमित्तिक सुतरां चटाईको निवत्यं कर्म कहते हैं। जो वस्तु कमसे पापक्षय होनेका मत स्मृतिमें कहा है,- पहले सत् रहते पीछे अवस्थान्तर पाता, वह विकार्य "नित्यनैमित्तिकैरेव कुवापो दुरितक्षयम् । (मौमामा-परिभाषा) कहाता है। जैसे -वह चावल सिझाता है। यहां फलको कामनासे किया जानेवासा कर्म काम्य चावल पहले सत् रहा, पोछे केवलमात्र अवस्थान्तरको कहाता है। जैसे-कारीरि याग.। यह वृष्टि कामना- प्राप्त हुवा। इसलिये चावल विकायं कर्म समझा शील पुरुष द्वारा अनुष्ठित होता है। इसीसे इसको गया। फिर विकार्य कर्म विविध है-प्रकृति-नाश काम्य कहते हैं। काम्य कर्म तीन प्रकारका होता है- सम्मृत और गुणान्तरोत्पत्ति हारा नामान्तरविशिष्ट । ऐहिक फलक, बामुपिक फलक और ऐहिकामुभिक- जैसे-वह काष्ठको भस्म करता है। यहां काष्ठ फलक। जिस कर्मसे इहलोकमें फल मिलता, उसका जसने पर भस्म बननेसे प्रकृतिनाथसम्भूत कर्मका नाम ऐहिक पड़ता है। इहलोकमें वृष्टिरूप फल उदाहरण ठहरा । 'सुवर्ण की कुण्डल बनाता है' देने कारण कारीरियाग ऐहिकफलक है। पर- स्थलमें सुवर्ण से गुणान्तरविशिष्ट कुण्डलको उत्पत्ति लोकमें फलोत्पादक कर्म पासुष्मिकफलक होता हुयी और गुणान्तरोत्पत्तिमे सुवर्णको हो कुण्डल संज्ञा है। अग्निहोत्रादि याग इहकाल किसीको स्वगंप्रदान पड़ी। इसीसे यह गुणान्तरोत्पत्ति हारा नामान्तर नहीं करता। उसका फल परकानको हौ मिसता विशिष्ट कमका उदाहरण है। फिर निवत्य पौर विकार्य है। सुतरां अग्निहोत्रयाग प्रामुभिकफलक है। इह- भिन्न कर्म प्राप्य है। जैसे-वह सूर्य को देखता है। काल और परकाच फलप्रद कर्म ऐहिकामुभिक- मीमांसक दो प्रकारका कर्म बताते हैं अर्थ कर्म फलक होता है। और गुणकर्म। जिस कर्मसे किसी प्रकारका अदृष्ट बोधायनाचार्य ज्ञानसहकारसे इस कर्मको मुखिया उठता, उसे विद्वान् अर्थ कम कहता है। जैसे अग्निहोत्र कारण बनाते हैं। किन्तु पद्दतवादी शङ्कराचार्यका गग। यह यज्ञ करनेसे याजिकके पात्मामें स्वर्गजनक दूसरा मत है। उनके कथनानुसार प्रन भित्र सकल अदृष्ट जगता और उसी अष्टसे पोछे यनकर्ताको विषय मिथ्या है। जब चित्तदेवमें एकमात्र प्रय वर्ग मिलता है। फिर जिस कमसे वस्तु संस्कृत सत्य होनेका ज्ञान उठता, तब ज्ञानी- पुरुष कर्म जनता, उसका नाम गुणकर्म पड़ता है। जैसे वह तथा तत्साधनको मिथ्या समझता और परब्रह्मसे बोधि प्रोक्षण करता है। यहां प्रोणनेसे ब्रीहि पृथक् अपना अस्तित्व भी स्वीकार नहीं करता। संस्कत होता है। इसीसे प्रोक्षण गुणकर्म है। मुतरां कर्मकर्ता और साधनके मिथ्यात्व प्रयुक्त जानके अर्थकर्म नित्य, नैमित्तिक और काम्य भेदसे तीन समय कम रहनेको सम्भावना कैसी। इससे ज्ञान- प्रकार है। जिसको न करनेसे पाप पड़ता, वह नित्य सहकारसे कर्म मुक्तिका कारण हो नहीं सकता। कर्म ठहरता है। अग्निहोत्रादि यज्ञ न करनेसे केवल मात्र ज्ञान हो मुक्तिका कारण है। फचाकाचा ब्राह्मणकी पाप लगता है। इसीसे अग्निहोत्र प्रभृति परित्यागपूर्वक कर्म करनेसे चित्त परिशुद्ध होकर ब्राह्मणका नित्यकर्म है। किसी निमित्तो उपलक्ष्य अद्वितीय के तत्वज्ञानको क्षमता पाती है। फिर किया जानवाला कर्म नैमित्तिक कहाता है। गोवधादि विशुद्ध चित्तमें कूटस्य ब्रह्मका प्रतिविम्ब पड़ने से मुक्ति पापक्षयार्थ प्रायश्चित्त गोवधादि निमित्तके उपलक्ष्य मिल जाती है। किया जाता है। इससे यह नैमित्तिक कर्म के मध्य जैन-मतसे कर्म दो प्रकारका होता है-वाति परिगणित है। नित्य तथा नैमित्तिक कम न करने पौर अधाति। मुक्तिके लिये विघ्नकर कर्म घाति कहाता.