पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२८४

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काक २८५ । पाटलाभ (गुलाबी) पिङ्गलवणं रहता है। थोड़ेसे अंशमें बैंगनी रंगकी चिक्कणता झलकती है। अपरी स्तरके पालक चिक्कण एवं कृष्णवर्ण और निम्न स्थानीय पाटलाभ पिङ्गलवणं लगते हैं। पिहलवर्ण पानीका प्रान्तभाग रहाभ होता है। बच्च का पुट काला पड़ता है। दोनों पद भी काले ही रहते हैं। देय २२ इश्च है। सिन्धुप्रदेशके याकूबाबाद और लारखानेके मरुप्रदेशमें शीतकाल में भी यह देख पड़ता है। पञ्जाबी डोमकाक (C.corax )से इसके गानका वर्ण भिन्न लगता है। दूसरा पार्थक्य गलदेशके पालकोंको क्षुद्र पाशति और देहके परिमाणको लघुता है। इसका वैज्ञानिक नाम 'करवस् अम्बिनम्' (C. Umbrinus) अर्थात् पाटनचूड़ काक है। यह भारतके युक्त प्रदेशसे मिसर और एशियाकै पश्चिम तथा दक्षिणस्थ देश तक सकल स्थानों में मिलता है। ३ कौड़ियाला कौवाको उत्तर-भारतीय 'डांड' या 'डात कौवा', दक्षिण में 'धेरी कौवा', तैलङ्ग 'काकी, तामिल 'काका', लेपचा 'उत्तकों, भूटानी 'उलक' और अनेक अंगरेज 'रावन' ( Baven) कहते हैं। किन्तु शाकुनतस्वज अंगरेज पण्डितोंने इसका नाम 'इण्डियन कर्वी (Indian Corby) रखा है। इसकी श्रेणीके कई भेद हैं। उनमें कुछ नीचे लिखते है। (क) गलित मांसभुक्-भारतीय कौडियाले कौवेके ऊपरी पर चिकने और खूब काले- होते है। किन्तु नीचेवाले अधिक कृष्णवर्ण नहीं रहते। पुच्छक पालकोका संस्थान ईषत् गोलाकार लगता है। विशेष दोघं पड़ता और प्रायः पुच्छके अन्ततक विस्टत रहता है । चञ्च का पुट सरल बैठता है। उच्च चञ्चका सम्म खस्थ भाग उच्च और अग्रभाग वक्र होता है। गलदेश (घाड़) और चक्षुपाखंयके पालकोंमें चिक्क गता कम झलकती है। इस स्थानके पालक रूचीके पालेकी भांति लगते हैं। उनमें खूटी (डांठि) देख नहीं पड़ती। कण्ठ, पद और पङ्गुलिका वर्ण काला होता है। यह १८ इन दोछ रहता है। ग्यारहसे चौदह, पुच्छका सात, पैरकी खूटीका दोसे अधिक और कण्ठका देध्यं दाई इन Yol. IV. 72 इसको अंगरेजी शाकुनशास्त्रमे 'करवस माक्रोईि- इस' (O. macrorhynchus) अथवा 'करवस कलमि- नाटस् (C. culminatus) लिखते हैं। यह भारत वर्षके वनों, पर्वती, लोकालयों प्रभृति सकल स्थानों में रहते हैं। पूर्व उपदीप और भारतीय होपत्रेणीमें भी इनकी कोई कमी नहीं। ग्रामकाककी भांति प्रगण्य न रहते भी अन्यान्य जातीयोको अपेक्षा यह संख्याम अधिक बैठते हैं। लोकालयको अपेक्षा इन्हें वन अथवा पर्वतमें रहना अच्छा लगता है। यह प्रधानतः मृत जन्तुका मांसादि खाते हैं। इसीसे अंगरेज़ इन्हें "कर्वी वा कैरियन' अर्थात् 'गलितमासभूक्' ( सड़ा गोश खानवाले) कहते हैं। यह भी पण्डे देते समय किसी दुर्गम वनमें निरूपद्रव वृक्षपर घोंसला बनाते हैं। घोसला सूखी घास, पत्ते पौर बालसे कोमल तथा उष्ण कर लिया जाता है। एक बारमें तीन-चार अण्ड़े होते है। अण्डा इसका हरा रहता और उस- पर भूरा भूरा दाग पड़ता है। वैशाखसे श्रावण मासके मध्य तक पड़े देने का समय है। इनके भी घोसनोमें कोयल अपने भण्हे रख देती है। यह बड़े भनिष्टकारी हैं। छोटे छोटे मुरगे, कबूतरके बच्चे और चिड़े पकड़ ले पाते हैं। बकरीका छोटा बच्चा भी इनके चञ्चु- पुटाघातसे मृत्युमुखमें पड़ता है। दूसरे पक्षियोका घोसला या अण्डा तोड़ते देख इनको 'राजकाक' खदे- इता है। पनेक अंगरेज, इन्हें 'नगाल-को' (Jungle crow) कहते हैं। (ख) युरोपीय 'कारियनलो' ( Carrian erow) विलकुल भारतीय गलित मांसभुक्की भांति होता है। केवल उसके गानका वर्ण घोर कृष्ण और कपोत (गाल)का पालक मृदु नहीं रहता। सर्वशरीर चिक्कण लगता है। पुच्छका पालक पाठ, पक्ष बारह चौदह और कण्ड सोन इञ्च बढ़ता। केवल भारत और काश्मीरमें यह काक देख पड़ता है। इस नातीय पक्षीका आदि वासस्थान साइवेरियाके पूर्वांश- मैं इनसौनदीसे प्रशान्त महासागर पर्यन्त हैं। उस स्थानसे दक्षिण काश्मीर और पश्चिम इलेण्ड पर्यन्त समस्त देशमें यह रहते हैं। इन्हें अंग- पच पक्षका -1