पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३

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कपिल पाशा कैसे पा सकती है-उत्पत्तिसे पूर्व कार्यको | इन्द्रियका सम्बन्ध लगनेसे पन्तःकरणमें विषयाकार परि- सत्वा स्वीकार करते उत्पत्तिसे पूर्व कार्यका प्रत्यक्ष थाम उत्पन्न होता है। वह परिणाम अत्यन्त निसंख क्यों नहीं होता! कारण महर्षि कपिलके मतानु रहता है। फिर उसमें स्वप्रकाश भामा प्रतिविम्बित सार कार्यमान उत्पत्तिसे पहले कारणमें भव्यता होनेसे सकल विषय अनुभव करता है। व्याप्तिज्ञानके वस्थाके डिम्बस्थित सर्य की भांति अवस्थान करता है। लिये ज्ञानको अनुमिति कहते हैं। अनुमितिका डिम्बसे निकलनेके पहले जैसे सर्प देख नहीं पड़ता, करण हो अनुमान प्रमाण है। जो हेतु साध्यका वैसे ही कारणसे अभिव्यक्त होनेके पहले कार्य भी अव्यभिचारी रहता (साध्यशून्य स्थान नहीं होता), दृष्टिमें नहीं चढ़ता। उसौमें साध्यके सामान्याधिकरण्य (साध्याधिकरणमें पदार्थों की संख्या ठहरानेसे ही इनका बनाया उसो हेतुके अस्तित्व )को व्याप्ति कहते हैं। फिर दर्शनसूत्र सांख्य कहाता है। सांख्य देखो। कपिलके साधन किये जानेवालेका नाम साध्य है। जैसे कई पचीसो पदार्थ यह हैं-१ महत्तत्त्व, २ अहङ्कार, "पर्वती वहिमान् धूमात्" अर्थात् 'धूमसे पर्वत वह्नि- ३ मन, ४ शब्दतन्मात्र, ५ स्पर्श तन्मात्र, ६ रूपतम्मान, मान् है स्थानपर पर्वतमें साधन किये जानेसे वह - रसतम्मान, ८ गन्धतन्मात्र, चक्षुः, १० कर्ण, साध्य ठहरता है। जिसके द्वारा साध्यका साधन ११ नासिका, १२ निद्धा, १३ वक, १४ वाक, करते, उसोको हेतु कहते हैं। जैसे धूम है। कारण १५ पाणि, १६ याद, १७पायु, १८ उपस्थ, १८ आकाश, धूम देखकर ही पर्वतमें वह्निका साधन किया जाता "२० वायु, २१ तेजः, २२ नल, २३ क्षिति, २४ प्रामा । वनिशून्य स्थानमें धूम नहीं रहता। किन्तु और २५ प्रकति। कार्यकारिता रहित सत्व, रजः वहिके अधिकरणमें धूमका अस्तित्व होता है। अतएव और तमः त्रिगुणको प्रशति कहते हैं। इस धूममें वह्निको व्याप्ति पड़ते कोई विरोध नहीं पाता। प्रकतिका प्रथम कार्य बुद्धिसत्त्व है। दुषितत्त्व हो | शब्दसे होनेवाले जानके करणको हो शब्दप्रमाण 'महत्तख कहाता है। बुद्धितत्वसे अहवार और कहते हैं। कपिल वैदान्तिकको भांति एक जीववादी अहवारसे शब्द प्रकृति तन्मान तथा चक्षुः प्रकृति महीं। इनके कथनानुसार सकलका एक नौवामा 'इन्द्रियको उत्पत्ति हुयी है। फिर पक्षतन्मात्रसे पञ्च माननेसे रामको सुख मिलनेपर श्याम भी उसे अनु- महाभूत निकले हैं। अर्थात् शब्दतम्मानसे आकाश, भव कर सकता है। नैयायिकादिको भांति सांख्य स्पर्शसे वायु, रूपसे तेन, रससे जल और गन्धसे पण्डित पात्मामें दुःख और सुखका होना नहीं मानते। पृथिवीको उत्पत्ति है। आमा नित्य स्वप्रकाश और वह विषयमें ही सुख और दुःख स्वीकार करते हैं। 'निर्विकार है। सुख दुःख प्रभृति कुछ भी उसे स्पर्श यदि विषयमें मुख एवं दुःख न रहता, तो अमितषित ‘नहीं करता। जब अन्त:करणके बुद्धितत्वका सुख विषय मिलते ही सुख. और अनमिलषित विषयसे ‘एवं दुःखाकार भाव उठता, तब अन्तःकरणके साथ दुःख न पड़ता। अभिलषित विषयमें सत्वगुणके भामाका अभेद ज्ञान लगनेसे अन्तःकरणका सुख तथा उद्भवसे सुख और रजोगुणके उद्भवसे दुःख होता है। दुःखादि धामा, मालूम पड़ता है। किसी वृक्षमें भ्रम कपिलने सांख्यसूत्रमें वेदका प्राधान्य खोकार पड़नेसे मनुष्यका इस्त मस्तकादि देखायी देनेकी किया है। किन्तु ईश्वरका अस्तित्व इन्होंने नहीं -भाति भभेद ज्ञानसे अन्तःकरणका धर्म सुखदुःखादि माना। सांख्यसूबके मतसे अस्तित्व माननेपर ईखर- पालामें भलकता है। को जगत्का कर्ता कहना पड़ेगा। ऐसा होनेसे 'कपिखने तीन प्रमाण माने हैं:-प्रत्यच, पनुमान विषम सृष्टिकारी ईश्वर मनुष्यको भाति पक्षपाती "और शब्द। इन्द्रियमे नोभान पाता, उसका वरण ठहरता है। किसी मतसे. ईश्वर के लिये एकको सुखो अस्वक्ष प्रमाण कहाता है। घटादि विषयक साथ और दूसरेको दुःखो करना उचित नहों। क्योंकि