'कागन ३-४ । भब भी छोटे छोटे- दूकानदारोंकी दुकान पर ऐसी | 'ताड़-पत्र' का बहुत कुछ व्यवहार किया जाता वस्तु देखने में पाती हैं। ये लोग (-४ इञ्चक ३ दक्षिण (यवणवेलगोला आदि )में ताड़-पत्र पर काठके टुकड़े एकत्र रमोमें पिरो लेते हैं; और उस शास्त्र लिखनेका बहुतही प्रचार था और अब भी है। रस्मोके छोरमें एक चोड़की कील वांध रखते हैं। जैनबद्री मूडबट्रो नगरमें "जयधवल-महाधवन" उन टुकड़ों पर मोम और कालोच मिला कर लगा नामक ताड़पत्र पर लिखे हुए दिगम्बर जैनियोंके देते हैं। खरीद बिक्री करते करते यदि उधार देनेका महान् ग्रंथ अव भी मौजूद हैं। पाराके जैनसिद्धान्त- या पौर कोई हिसाव ा पड़ता है; तो ये उन भवन में भी बहुत से अन्य ताड़-पों में लिखे हुए मोजूद टुकड़ी पर उसी कोल लिख लेते हैं। दंगाल हैं। नेपालमें महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्रीजीने प्रांतको छोड़कर प्रायः सारे हिन्दुस्थानमें विशेषतः जितने हस्तलिखित ग्रन्य देखे हैं, उनसे ईश्खौके पट मारवाड़ और युक्तप्रान्तमें काठको पहियों ( १ फुट+ शतकाकी पोथो सबसे प्राचीन गिनी जाती है। परंतु १०) पर खड़ियामिट्टी घोक्ष कर सरपवे (सेंटा) की दक्षिणके उपयुक्त ग्रन्थों (जयधवल महाधवल) परसे कलमसे लिखा करते हैं। यह सेंटा उन प्रान्तांमें निश्चय किया जाता है कि, भारतमें ताड़-पत्रों पर घासकी तरह अपने आपही उपजता है। सिलेट लिखनेकी प्रथा बहुत दिनोंसे चली पाती है। और पैन्सलका उन प्रान्तों में बहुत ही कम प्रचार है, (छ) वृक्षवल्कच-पड़ोंको छाल भी किसो समय वहांक मदत्रिों में भी यही “पट्टी” काममें लायी जाती पृथिवीके सर्वत्र लिखने के काममें लाई जाती थी। है। पहिले नमानमें ऐसे काठोंके टुकड़ों पर चिट्ठी पहिले कालदीयगण पेड़ोंकी भीतरी छालको "लवर" लिख कर रस्सीसे बांध कर, गांठक ऊपर मुहर लगा ( Leber) कहते थे और उसको लिखने काममें देते थे। सलीमन पुस्तकालय, २ फुट ६६ इच्च लाते थे। इसी 'लेवर'से ही अब 'लेवर' शब्दसे काठके तखतापर एसा लिखा हुआ मौजूद है। चीनमें पुस्तकका जाना होता है। ब्रह्मदेव बांस की खपञ्च भौ काठके तख्ते लिखनेको काममें पाते हैं। पर पवित्र पुस्तकें लिखी जाती थौं। समानादीपमें (च) पत्ता-प्राचीन कालमें अधिकांश जातियां वुहाजाति अव भी एक तरहके पेड़की भीतरी छाल पर पेड़ोंके पत्तीको लेख्यरूपसे व्यवहारमें लाती थीं। लिखा करती हैं। ये लोग इस छालको लंबी लंबी आफ्रिकाके मिसरीयोंने सबसे पहिले ताइप पर चौर कर चौखूटी घरी कारके रखते हैं। रजन या लिखना सीखा था। सिराकिउसके जज लोग 'जलपाई टापिन-तैलके वृक्ष जातीय एक प्रकारके वृक्षके रसमें वृक्षके पत्ते पर निर्वाचन-दण्डके प्रामामियों के नाम इत्तुरस मिला कर स्याही वनाते हैं। साधारणत: लिखते थे। भारतवर्ष में, सिंहल में और ब्रह्मदेशमें ताड़ व्यवहार के लिए वे लोग बांसके गांठमें लगी हुई खोल पत्रका अधिक व्यवहार होता है। ब्रह्मदेशमें उत्तम (असिफलक ) पर भी लिखा करते हैं। बोलियन पुस्तकों हाथोके दांतको पत्तियों पर लिखी जाती थों लाइब्रेरीमें मेविसको देशके अस्पष्ट सांकेतिक पक्षरों में हाथी दांतकी पत्तियां पहिले काली रंगली जाती लिखी हुई एक पुस्तक है, उसके अचर-समूह भी थों और फिर उसपर सोनको या चांदीकी शिक्ष' से वल्लालके उपर लिखे हैं। भारतके मलवार उपकूल. अक्षर लिखे जाने थे। उड़िया और सिंहलीय लोग वासी अब भी प्रधानतः वल्कलके अपर लिखा "तानिपत" वृषके पत्ते व्यवहार करते हैं; यह पते करते हैं। बहुत चौड़े और पतले होते है। इसके अपर प्रक्षरीको (न) रेशमीवस्त्रखंड-लिनि कहते हैं कि, स्पष्ट करने के लिये उस पर लोहेकी सौकसे लिख रेशमी वस्त्रके ऊपर लिखना पहिले अप्रसिद्ध व्यक्तियों में वर फिर उस पर कोयलेका धुरा घिस कर पोछ देते प्रचलित था। इन रेशमी वस्त्र पर लिखित पुस्तका- भब भी सिंहसमें तालियत और भारतमें दिमें मजिष्ट्रेट चोगोंके नाम और साधारणको Vol. IV. 78