पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३६९

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कात्यायन व्याकरणकार वररुचि दोनो एक ही व्यक्ति थे। एतद्भिव पा०८।४।१५ सूत्र में भी कात्यायनने सम्भवतः उन्होंने इण्डिया हाउसके पुस्तकालयको प्रतिषेध किया है। सर्वानुक्रमणेमें "अत्र शौणकादिमतसंग्टहीतुवररुचेरनु दूसरे, पाणिनिके समय कोई कोई शब्द जैसा पथ- क्रमणिका" वचन पढ़ उक्त मत प्रकाशित किया है। प्रकाशक था, कात्यायनके समय वैमा न रहा। जैसे- वास्तवमें कात्यायन वररुषि एवं प्राक्षतप्रकाश "पायर्यमनिव्ये ।" (पाहा १४०) नामक पालत व्याकरणके रचयिता दोनों एक व्यक्ति यहां पाणिनिने भाययं शब्दशा पथ भनित्य नहीं थे। मालतप्रकाशकार वररुचि वासवदत्तामणेता ग्रहण किया है। किन्तु कात्यायनने “अद्भुत पति सुबन्धुके मातुल थे। पुराविदोंके मतमें यह वररुचि वक्तवरम्।" अर्थात् आययं शब्दका पर्थ अद्भुत माना हर्ष विक्रमादित्यके समसामयिक अर्थात् वृष्टीय है। इसी प्रकार ४।२।१२८, ७।३।३८ प्रति इष्ट शताब्दके लोग रहे। ( Hall's Vasavadatta, कई स्थल में पाणिनि और कात्यायनके अर्थको preface, p. 6.) किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि विभिवता लक्षित होती है। पाणिनिके वातिककार उसके बहशत वर्ष पूर्व विद्यमान तोमर, पाणिनिके समय अधिकांश शब्द * और थे। सोमदेवने, व्याडि, पाणिनि और कात्यायन शब्दार्थ जैसा प्रचलित था, कात्यायनके समय वैसा तीनीको समसामयिक लिखा है। किन्तु युक्तिपूर्वक न रहा। यथा- पाणिनिसूत्र और कात्यायनका वार्तिक देखनेसे उभय पाणिनित शब्द व्यक्तिको समसामयिक मान नहों सकते। उत्सलन (२२३) अवक्षेपण एक तो, पाणिनिके समय जिस प्रकार शब्दशास्त्रका उपसंवाद (४८) पणवद्ध, शपथकरण। नियम प्रचलित था, वह वार्तिकरचनाके समय उपाजेक, पवाजेक्क (१।४।७३) बलाधामा अनेक पप्रचलित हो गया। जैसे, "पदृडतरादिभ्यः पक्षणः । ऋषि ( 8181८६) वेद। (पा ७१ १६ २५) अर्थात् उतर और डसम प्रत्ययान्त एवं कणेहन (११४१६६). हामतिधाता अन्य, अन्यतर तथा अन्य सम पांच सर्वनाम शब्दों के निवचनेक (१।४।७६) उत्तर लौवलिङ्ग में प्रथमा और द्वितीयाके एकवचनमें प्रत्यवसान (२४५२) भोजना 'अ' होगा। श्रद्धापतिधाता यथा-कतरत् कतमत् इत्यादि। मनोहन (१२३६६६) फिर पाणिनिने दूसरा विशेष विधि बढ़ाया खकरण (१३५६) स्वीकार, विवाह। "नेतराच्छन्दसि।" (पा018२६) होत्रा (५११३५) ऋलक। अर्थात् वेदमे इतर शब्दके लोवलिङ्गपर प्रथमा कथित युक्ति और प्रयोगके अनुसार (कथासरित- और द्वितीयाके एकवचनमें पदड् न होगा, 'इतर?' सागरमें उल्लिखित होते भी) पाणिनि और कात्या- पदके परिवर्तनमें "इतरम् लगेगा। यनको समसामयिक कैसे मान सकते हैं। इस पक्षों कात्यायनने इस विशेष विधिके वार्तिकमें उक्त कोई संभय नहीं कि कात्यायनके बहुपूर्व पापिनि सूत्रका संशोधन कर लिखा है- पाविर्भूत हुये थे। वार्तिक पायोपान्त .मनोनिवेश- “तराच्छन्दसि प्रतिषेधे रक्षतरात् सर्ववा" -(वातिक) पूर्वक पढ़नेसे समझ सकते हैं कि पाणिनि व्याकरण प्रति प्राचीन ग्रन्थ है। कात्यायनके समय उपयुव वृत्ति इसी वातिकका पक्ष समर्थन कर काशिकाकारने • कपित मन्दोंसे दो एक किसी किसी कोषमै बदनियमार्थ बन होते "पखतराकन्दसि भाषायाच सर्वच प्रतिषेधपथ।" । भी महिकाव्य व्यवीत दूसरे प्राचीन दोविल काव्य सवाटिमें काई देव नहीं पड़ता। मायोमके मामय देशामक सिये और महिलान्य में अर्थात् क्या वैदिकक्रिया और क्या साधारण व्यव- हार्य भाषाम सर्वत्र "एकतरम्" पद व्यवहार होगा। मौन। उहतार।