पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४९६

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'कायस्थ 83.9 . सन् १२ पपोच, इत्यादि कर कायस्य .हरिनारायण दास "विद्यासागर' उपाधिसे बङ्गालो वर्षको महाराज गोपीमोहन देव बहादुरको विभूषित थे। दधिवरादीय कायस्ख-समान में सुगन्धाको चिकित्साके व्यवहारी जहांगीर बादशाहक चिकि सम्मतिसे तारिणीचरण मित्रज' महामयने पत्र. सक वसुर्वधीय- चिन्तामणि राय 'वैद्यराम और विवरणका आमूल सन्धान करके चित्रगुप्तवंशजात रत्नमणि राय 'धन्वन्तरि उपाधिसे पलकत थे। पीछे कायम शूद्र नहीं, इस प्रकार प्रमाण पौराणिक पाने इसी वंशम 'तपस्वी' 'सार्वभौम 'वाचस्पति' 'वैधशेखर' पर समाचारपत्रमें प्रचार किया था। उस काल नीमतलानिवासी दाज महाशय पौर वैकुण्ठवासी 'कण्हहार' 'वैद्यतिसक' 'वैद्यविशारद' 'वैद्यचूड़ा. मणि 'तर्कतीर्थ 'वेधरन' इत्यादि इत्यादि उपाधियों के तारिणीचरण वसुज महाशयने पत्र विवरणका भासून अधिकारी हो गये हैं। इनके रचे हुए बहुतसे सन्धान करते केवल पौराणिक प्रमाणसे अवधारण वैद्यक अन्य मी मिले हैं। किया, निश्चय न समझ चुपके रहे। पोछे डस दिनाजपुरके वर्तमान कायख महारानको समयसे वैकुण्ठवासी दत्तन महाशयके पुत्र गुणाकर श्रीयुक्त ३०० वर्ष पहिले तक बोत्तरक दान-पतमें 'वर्मा विशेखर दत्तज महाशय इलाहाबादसे फारसी उपाधि देखने में पाता है। इस वंशमैं विजया अक्षरों में लिखा एक पुस्तक ले आये। जिसमें पम- दशमोके दिन चित्रगुप्तका नमस्कार-मन्त्र पढ़ कर पुराणोता चित्रगुप्त-सन्तान कायस्थ वंशका हादशाह पुरोहित जब इनके हाथ में तलवार देते हैं, तब ये अपौच और क्षत्रिय धर्म दृष्ट होता है।' कहना उसे ग्रहण करते हैं; और फिर उसी तसवारसे वधा है कि उक्त फारसी पधरै लिखित कायस्थवयान केलेके पेड़की काटते हैं। यह प्रथा पहले के नामक हस्तलिखित अन्य महाराज गोपीमोहन देवके चत्रियों की मृगयाका अनुकल्प है। बङ्गालके कायस्थ - पुत्र राजा राधाकान्त देवके पुस्तकालयमें अयापि समानने तान्त्रिकताके प्रभावसे वैदिक गायत्री प्रादिक विद्यमान है। राजा गोपीमोहन देव और राजा त्यागने पर भी गर्भाधान, कर्णवेध और चड़ाकरण राजवष्णदेव बहादुरके मध्य महाराज नवकृष्णको पादि हिजोचित संस्कार पाले हैं, ऐसी हालत में विमुल सम्पत्तिके उत्तराधिकार पर कलकत्तेको सुपरीम यहाँके कायस्थ कभी शूद्रोमें नहीं गिने जा सकते। कोर्ट में जो मुकदमा चला, उसमें भी दोनों ने अपनेको बङ्गालके अधिकांश सामाजिक कायस्थ चित्रगुप्तके शूद्र और वैश्यसे भिन्न उच्च वर्णकी भांति घोषणा की सन्तान हैं, उनमें बरावर संस्कार चले पाये हैं। है। मेकण्टन.साहब कटक १८२४ ई० को प्रकाशित पौर उनमें बहुतों ने तान्त्रिक आचारको ग्रहण नहीं उस मुकदमे की कैफियत पढ़नेसे सभी जान सकेंगे। * किया है। वे बगवर वैदिक प्राचार पानन करते पब बात. पाती है-राजा राधाकान्त देव बहाः आये हैं-इसका पाभास भी अन्यों में मिलता है। दुरके पिता और पिळव्य अपनेको शूद्र वैश्यसे भिन्न इनके सन्तान बङ्गास और युक्षप्रदेशमें अब भी रहते उच्च वर्णकी.भांति परिचित करते भी रामा राधाकान्त हैं और वे अब भी दिनों सदृश संस्कारवाले हैं। देवने अपने शब्दकल्पद्रुममें कायस्थों के विषय पर बङ्गीय १२२४ संवत्के छपे हुए "कायस्थ-धर्म- अशास्त्रीय कथा क्यों लिखी है ? जिस समय भब्द. निर्णय' नामक प्राचीन बङ्गला-ग्रन्थमें ऐसा लिखा - कल्पगुम प्रकाशित पीता था, उसी समय पान्दुनके है. कि,-'गौड़ और बङ्गराज्यवाची दक्षिणरादी, राजा राजनारायण प्रधान प्रधान पण्डितो का मत उत्तरराढ़ी और बङ्गाज कायस्थ-सन्तानों को प्राचारमें ले कर कायस्व-समाजमें उपनयन संस्कार प्रवर्तन पर हिन्दुखानो कायखों के पालापन :व्यवहारमै वृणित अग्रसर हुये थे। राजा राधाकान्तके पिता राजा होना पडता है। क्योंकि हिन्दुस्थानी कायस्थ मात्रका चत्रिय भाचार, वेदवेदाङ्गपाठ, हादशाह l in Bengal, by Hon'ble Sir Francis WiMaghnaten, 1824 Consideration on the - Elinda Law as it is corrent Vol. 125 IV,