पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५२०

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५२: कारण. पातास-दर्शन. कारण नौ प्रकारसे विभत नामक पदार्थ अवश्य मानना चाहिये। कणाद प्रभूति दार्शनिक परमाणुको सावयव जगत्का उपादान "उत्पचिस्थित्यमिन्यतिविकारप्रव्ययावतः । (समवायि-कारण) बताते हैं। उनके मतमें परमाणु वियोगान्यत्वतयः कार नवधा तम् ॥" सकस परस्पर संयुक्त होनसे एक एक मादवयवी प्रत्यत्र (पातजस २२८ स्वभाष्य) होता है। किन्तु वैदान्तिक उसे नहीं मानते और कारण नौ प्रकारका है-उत्पत्ति, स्थिति, पमि कणादके मत पर दोष लगाते हैं-निरवयव परमाणमें व्यक्ति (प्रकाश), विकार, ज्ञान, प्राप्ति, विच्छेद, कमी एकदेशिक संयोग नहीं हो सकता। जिस अन्यत्व पौर धारण। कार्यके भेदसे उत नवविध वस्तुका कोई अवयव नहीं, उसका एकदेश होना कारणको विभिन्नता पड़ती है। यथा-उत्पत्ति असम्भव है। सुतरां इसमें प्रारोप्यावृत्ति (ऐक- जानका कारण मन, शरीरको स्मृतिका कारण पाहार, देशिक ) संयोग कैसे लग सकता है। उक्त सिहास रूपकी अभिव्यक्तिका कारण पालोक, पचनीय वस्तुके ठहर जानसे परमाएके संयोगका होना असम्भव है। विकारका कारण अग्नि, पग्निके प्रत्यय (ज्ञान)का फिर परस्पर संयुक्त परमाणुसे महदवयवी कार्यको कारण धूमज्ञान और विकारको प्राप्तिका कारण उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। सुतरां कार्य समुदय योगातानुष्ठान है। अज्ञान धारा परब्रह्ममें कल्पित जैसा मानना पड़ेगा। योगानका अनुष्ठान ही अशुक्केि वियोगका रन्जुमें सर्पको मांति ब्रह्ममें भी प्रधान द्वारा कार्य- कारण, वनयकारी सुवर्णकार कुण्डनरूप सुवर्णका | समूहको कल्पना को जाता है। रविषयक धान अन्यत्व कारण और ईश्वर इस जगत् तथा इन्द्रिय. द्वारा प्रज्ञानको निवृत्ति होनेसे जैसे कल्पित सर्प देव समूह शरीरको धृतिका कारण है। नहीं पड़ता, वैसे ही ब्रह्मज्ञानसे तदीय अचानको चार्वाकोंके कथनानुसार कारण नामका कोई निवृत्ति होनेसे समुदय जगत्का प्रपक्ष मिटा करता पदार्थ नहीं होता। कारणके सम्बन्ध व्यतिरेक ही है। जगतको कल्पनामें ब्रह्मा अधिष्ठान है। इसीसे सब पदार्थ उत्पन्न होते है। वस्तुत: उसकी बात वैदान्तिक वनको जगत्का उपादान (समवायो) असङ्गत है। यदि कारणका अस्तित्व नरहते भी बताते हैं। कार्यको उत्पत्ति चलती, तो कार्यको सर्वदा विद्य सांख्यक मतमें सत्व-रज-तमोगुणामिका प्रकृति मानसा उपलब्धि हो सकती है। जिस प्रकार ही मूल कारण है। उसमें भी वेदान्तिकोंके कथना. मृत्तिकादि समुदय मिलनेसे घट बनता, उसी प्रकार नुसार चेतनका साहाय्य न मिलने पर प्रचेतन उसके पूर्व भी घट बन सकता है। फिर कारणका प्रतिसे कैसे कार्यको उत्पत्ति हो सकती है। सुतरां अस्तित्व न माननेसे परचित-गत संशयादि दूर करने के सांख्यवादियोका प्रति-कारणवाद भ्रममूलक अनुभूत मनसे शब्दका प्रयोगादि भी निष्फल हो जायेगा। होता है। जिस वस्तुके न रहनेसे जिस वस्तुको विद्यमानता लाभ नैयायिक पारिमाणस्य (पणपरिमाण) को करने में कठिनता उठाते किंवा जिस वस्तुवे रहनेसे कारण नहीं मानते। उनके मतानुसार परिमाणमात्र जिस वस्तुको विद्यमानता पाते, पण्डित उस वस्तुकी स्वसमान जातीय उवष्ट परिमाणका कारण है। उसी वस्तुका कारण बताते हैं। मृत्तिकाका अभाव अर्थात् जिस परिमाणसे ना परिमाण उपनगा, वही होनेसे घटको विद्यमानता नहीं और मृत्तिका रइनसे उत्पन्न परिमाण कारपोभूत परिमाणसे उत्कटतर घटको विद्यमानता होती है। उसी मृत्तिका निकलेगा। जैसे तन्तपरिमापसे समुत्पन्न वस्त्रपरि- घटका कारण ठहरती है। कारण न रहनसे सब माप तन्तुपरिमाणको अपेक्षा उतष्टतर होता है। वस्तु नित्य हो सकते हैं। उसीसे चार्वाकोको भी कारण प्रणपरिमावको किसी परिमापका कारण मानने पर