पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५३५

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डाली थी। 1 ५३६ कात्ति को-कार्तिकेयप्रसू उसमे प्रथम कार्तिकेयका जम्म हुवा। है। मुख सन्त्र है। समुदाय सेना चारों ओर. फिर उन्होंने देवोंके सेनापति बन तारकासुरको सार खड़ा है। (कार्तिकपूजापद्धति) डाला। दूसर कल्पमें भी उसी प्रकार तारकासुरवा अनेकोंके विश्वासानुसार कार्तिकेयका विवाह नहों. उत्योड़न बढ़ने पर ब्रह्माने देवासे अग्नि गो पामधना हुवा । वह चिरकाल अविवाहित अवस्वामें हैं। किन्तु करनेको कहा था ! तदनुसार उन्होंने पग्निको सन्तुष्ट वह भ्रममाव है। उनकी पत्नी देवरीना हैं। देव.. किया। अग्नि शक्लरूप धारण कर अतिगोपन में मेनाको ही हम पठी करते है सम्भवतः षष्ठीको महादेवके सागर पहुंचे थे। किन्तु महादेव सब से पली माननिसे ही अनेक हिन्दू पुत्रको कामनामे सबक गये। उससे सुरत विघ्न समझ कह धो उन्होंने कार्तिकयका व्रत किया करते हैं। देवसेनाके अम्न सूखन्नतवीर्य अग्नि पर फंसा था। अस्ति रुद्रमा नेज और शहनादि कातिदेयके समान हैं। मार्कण्डेय धारण कर न सके। फिर उन्होंने उसे गङ्गामें डाल पुराणमें वर्णित है,- दिया। उसोसे कातिकेयने दितीय वार जन्म लिया "कौमारी गनिसा च मयूरोपरि मस्थिता । । था। उनका नामान्तर-महासेन, शरजन्सा, षड़ानन, योग मन्दाययी तब पम्बिका गुरुपिणी ।" पार्वतीनन्दन, स्तन्द, मेनानी, अग्निभू, गुह. बाहुलेय, कुमारशनि कार्तिकेय सदृश मूर्ति धारण और तारकजित, विशाख, शिखिवाहन, पागमातुर शनि ग्रहण कर मयरवाहनोपरि पारोहणपूर्वक शतिधर, कुमार, मौञ्चदारण, प्राग्नेय, दीप्तकोति, दत्यौमे युद्ध करने पायो। अनमय, मयूरकेत, धर्मावा, भूतेग, महिपादन, | कार्तिकेयपुर-युक्त प्रदेशम कुमायं जिले के मध्य दान- कामजित, कामद, कान्त, सत्यवाक, भुवनेश्वर, शिशु, पुर परगनेकी हुजूर नामक तहसोतका एक नगर । शीघ्र, शुचि, चण्ड, दीप्तवण, शुभानन, प्रमोघ, अनघ, शजकन उमे वैद्यनाथ वा वैजनाथ कहते हैं। वह रौद्र, प्रिय, चन्द्रानन, दीप्तशक्ति, प्रशान्तात्मा, भद्रकत. पक्षा२६. ५४२४” उ० और देगा. ७८.३ कूटमोहन, षष्ठीप्रिय, पवित्र, साढवत्सना, कन्यादर्ता, २८"पू० पर अवस्थित है। वहां रांचुना नामक एक विभक्त, वाय, रेवतोमुत, प्रभु, नेता, नैगमेय, पुरानन दुर्ग है। उसमें एक काली मन्दिर बना है। सुटुथर, सुब्रत, ललित, बालकोड़नप्रिय, खारी, दूसरे भी कई पुरातन मन्दिर पड़े हैं। किन्तु उनमें ब्रह्मचारी, शूर, शग्वनोदव, विश्वामित्रपिय, प्रियक, कोई. मूर्ति नहीं, उनमें प्राजकन शस्यादि रखा जाता गाङ्ग, स्वामी, हादशलोचन, देवसेनाप्रिय, वासुदेवप्रिय. है। चीन-परिव्राजक युप्रनच्याङ्गको वर्गानाके अनु- देवसेनापति, बाल चय, कलवाध्विज, महावाह, युद्ध सार ५०१७वें शताब्दमें वहां चौद्ध धर्म प्रचलित था। रङ्ग, शिविध्वज, पावकात्मज, रुद्रघुनु, पगिरा और मन्दिरको दीवारमें एक स्थानपर वुडदेवको मूर्ति दितिजान्तका है। आज भी देख पड़ती है। उदयपान देवकी खोदित कार्तिकेयदेवका ध्यान इस प्रकार है,- प्रस्तरलिपिको दो रखपाहु वहां वर्तमान हैं। उस पर "कार्तिक महामागं मयूरोरि स्थितम् । शासागन जन्न पड़नेरी अक्षर मिट गये हैं। वहां ११२४ तप्तकाशनवर्षाभं गतिहमा घरप्रयम् ॥ शको इन्द्रवहारा प्रदत्त एकखण्ड साम्रलिपि प्राज विभुज शव उन्नारं नानानद्वारभूषितग ! भी पड़ी है। उसमें नीचे १४२१ शक्र लिखा है और प्रसन्नवदन देयं गुनासगाइतम् ॥" गणेशकी एक मूर्ति है। उस मूर्ति को नीचे ११२५ महाभाग कार्तिकेय मयूर पर अवस्थित है। और १२४४ शक भी बना है। उनका वर्ण तप्त वर्णको भासि चमकता है। शक्ति कार्तिकेय पसू (सं• स्त्रो०) . कार्तिकेयं प्रसूते या; हांधमें किये हैं। वह वर देनेवाले हैं। मूर्ति विभुज | कार्तिकेय-म-सूक्वि । दुर्गा, पार्वती। पावतीमें है। शत्रुका नाश करते हैं। नाना प्रकार विभूषित | शिवीर्य पड़ते देवोंने, विघ्न डाला था। उसीरे वह