पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५५४

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काकोधि है। कालोणधि चार प्रकारका होता है। बासमें संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग श्म कालोपाधि क्रियजनित विभागको प्रागभाव- पांच गुण होते हैं। साधारण विभाग तीन प्रकार है- भूग, भविष्यत् पौर वर्तमान । बोतजानेवालेको भूत, विशिष्ट क्रिया है। जैसे दो संयुक्त द्रयमें वियाजक उत्पन्न होनसे परक्षण ही वह दोनों बंट नति और चलने वालेको वर्तमान और भादवाले समयको भवि- विभागके प्रागभावका विनाश लातेहै। उसके पीछे थत् कहते हैं। किसी किसी शास्त्र में कालके कई अन्य किसी देवादिक साथ उसके संयोग और प्राग- साधारण विभाग हैं। इनमें ज्योतिषशास्त्रोक्त विभागों को हो हम सदा गिना करते हैं। एलहिन पायुर्वेदादि भावका नाश होता है। पाई क्रिया भी नष्ट हो जाती भास्त्र में भी कालका विभाग निर्दिष्ट है। सुश्रुतसंहिता है। इस स्थल पर यही देखते हैं-जिस समय क्रिया में कहा है, कि काश नित्य पदार्थ है। उसका पादि, उत्पन्न हुयी उसी समय वह विभाग प्रागमाश्विधि मध्य और विनाश नहीं होता । सूर्यको गतिक पनु. 'बन गयो। सुत उत्पत्तिकान वह क्रिया प्रथम सार कालको निमेष, काठा, कला, मुहतै, पहोरात्र, कालोपाधि है। पूर्वसंयोगविशिष्ट विभाग २य कानी पक्ष, मास, ऋतु, पयन, संवत्सर और युगमें बांटते पाधि कहलाता है। जैसे पूर्वोक्त स्थ चार क्रिया उत्पन्न हैं। लघु वर्ण बालन में जो समय लगता उसका नाम होने के परक्षण विभागको उत्पत्ति हुयो । विन्तु उस निमेष पड़ता है। १५ निमेषको काष्ठा, ३० काष्ठाकी समय संयोग बना रहा । उसके दूसरे क्षण वह विनष्ट कला, २० कलाका सुइत, ३० मुसका अहोराव, १५ हो जावेगा। सुतरा विभागको त्यत्तिकै समय अहोरात्रका पक्ष, २ पक्षका मास, २ मासका ऋतु. ३ विभाग पूर्वसंधोगविषिष्ट रहा है। पूर्वसंयाग नाय. ऋतुका अयन, २ अयनका वत्सर और १२ वसरका विशिष्ट परवर्ती संयागका प्रागभार ३य कालोपाधि होता है। पूर्वोक्त स्थलपर पूर्वम'योगके नाम समय न्यायके मतमें काल विभु, पर्थात् - अपरिच्छिन्न परवर्ती संयोगका प्रागभाव है, सुतरां पूर्वों संयोगक परिमाणविशिष्ट और च्य हस तथा कनिष्ठत्व ज्ञानका नापविशिष्ट परवर्षी संयागका प्रागभाव उस समय कारण एक पदार्थ है। वह अनुमान द्वारा सिह होता श्य कालोपाधि कहलाता है। उत्तर संयोगविशिष्ट है। प्रीतत्व प्रभृति व्यवहारमें कालही एकमात्र उप क्रिया ४थ कालोपाधि है। पूर्णेल स्थन्तपर नब 'योगी है। कासन रहनसे कैसे व्यवहार किया जा उत्तर संयोग जगेगा, सब क्रिया उत्सर संयोगविशिष्ट संकता कि वह प्रतीत, वह वर्तमान पौर वह भवि होनसे थकालोपाधि बनेगा। थत था। कोई कोई नैयायिक काल और दिक्को अथर्ववेदमें काल ही सर्वश्रेष्ठ कहा गया है,- ईखरसे पभित्र बताते हैं। न्यायके मतमें खण्डकाल "कालो पत्र पति समरश्मिः सहसायो पारो मूरिताः । और महाकाल भेदसे काल दो प्रकारका है। स्पन्द- तमारीहन्ति कृत्यो विपरिममय घका भवनानि विश्वा २१५ रूसी कानका नाम खण्डकाम्न है, फिर विभु चौर काली मिमकृजन कामे रूपसि सु। प्रमयकाल में भी विनष्ट न होनेवाले कालको महाकाल काले विश्वा ममानि का चर्विपश्यति ॥६॥ कहते हैं। क्षा, दण्ड, पल, विपन्न, दिन, मास और काही मग कामे प्रायः क्षारी नाम समाडिसम् । काहन सर्षा मन्दन्तयामतेन प्रजा एमा: Ren वसर प्रभृति व्यवहारमें खण्डकान ही कारण होता (घय सहिता, १९ काथ, ६३ सूह) है। क्योंकि सूर्य के परिस्पन्द अर्थात् गमन द्वारा हम "काले यई समरद देवी भागमपितम्। मास और दिन प्रति व्यवहार करते हैं। महाकाल काले मनपरमः कास झोका प्रतिष्ठिता: nan में संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और दिमाग कान यमद्भिः हिवाऽथ विनिमः। पांच गुण है। कोई कोई नैयायिक जन्य पदार्थ मात्रको चलो पर चला पुष्य लोकग्विीय युष्ण। महोशलमिनित्य प्रनया कालः सईयतै पामो नु देवा ॥६॥" अण्डकास बताते - 1 णकालका अपर नाम युग मानते हैं।