पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/७४५

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985 कौट कण्ड । 1 ज्वर, अहमद, रोमाञ्च, वमन, अतीसार, प्णा, दाइ, पड लाता और वमन, प्रतीमार तया चरगेगमे मोह, भा, कम्प, श्वास, हिका, शोत, पिढ़कानिगम, मृत्य, पाता है। शोध, न्यि, चकता, दव, काका, वीस, किटिम शूकन्त प्रभृति कोटी काटनेमे होती गरोर प्रभृति रोग भी उनके काटनेसे होते हैं । एतदव्यतोत में चकते और दट म्यानमें गृक मो दिखाई देना है । टूमरे भी कई कौट और उनके दंगनकै चिन्हादि वियोनिका छह प्रकारको होतो है । यथा-म्यून- सुन्नुतमें उपदिष्ट हैं। यथा- शोप, मम्बाहिका, ब्राह्मणिका, अंगुलिका, ऋषिन्तिका विकण्टक, कुणी, हस्तिकक्ष और अपराजित पीर चित्रवर्गा| उमके काटनेमे दरम्यान पर गोय दार प्रकारक कीटों का नाम कम है। उनके काट पौर परिनम्मकी मांमि दाइ हुवा करता है। नेसे तीव्रदेदना, गोष, अङ्गमर्द एवं गावगौरव आता कान्तारिका, कृष्णा, पिङ्गनिका, मधुलिका, झापायी और और दटस्थान काला पड़ जाता है। प्रतिसूर्य, पिट्नमास, स्वन्तिका नाममेदमे मक्षिका मो छह प्रकारको होनी वहुवर्ण, महाशिरा और निरुपम-पांच प्रकार के है। उसके काटनेमे दर यान पर दाह पार गोत्र कौट गौधेरक कहाते हैं। उनके दंशन यासना प्राविंग, उठता है । म्युनिज्ञा और कपायो काटनम उच्च विविधरोग और भयङ्कर ग्रन्यि निकलती है। गन्न- उपद्रवके माध माय पिड़का भी पड़ जाती है। गोली, व तहाण, रतराजी, रतमण्डन्ना, सर्वलेता मगक पांच प्रकार है-मामुद्र, परिमगड़न्दी, हस्ति- और सर्प पिका छह प्रकार के कीड़ोम मर्षपिका व्यतीत मशक, कृष्ण पौर पार्वतीय। उमके काटनमें दृष्ट व्यान अन्य पांच प्रकारके कीटोंके दंगनसे दाद, गोथ और पर गोय और अत्यन्त कण्ड होनी है। किन्तु पाव- लेद पाता है। फिर मर्षपिकाके काटनेमे हृदयपोड़ा तीय मशकके काटनेमे प्राणनाशक कोटदंगनने जो पौर प्रतिमार रोग उपत्रता है। कर्कशस्यश, विचित्र ममस्त नक्षण कहे गये हैं, वह ममस्त देख पड़ते हैं। वर्ण और करा, पोत, खेत, कपिन तथा अग्निवर्ण उस स्थान पर नख दाग छिन्न होनम अत्यन्त पिका भेदसे शतपदो कोट ८ प्रकारका होता है। उसके दंग. पड़ जाती और वह पक पाती है। वृश्चिक कोट मन्द, मध्य और महाविष भेदमें तीन नसे दृष्ट स्थान पर शोध एवं वेदना पौर हृदयम दाह प्रकारका होता है। पूति गोमय मे जो मकन हविक उठता है। विशेषतः खेतव पौर अग्निवर्ण शतपदी उपनत, वह मन्दविष रहते हैं। काठ पौर इटकम के काटनेसे दाइ, मूर्छा और खेतवर्ण पिड़ का उत्पन्न जन्म लेनेवान्ने मध्यविष होते हैं । फिर पूतिमपंदेड होती है । कृष्णमार, कुहक, हरित, रक्त एवं वववर्ण और विषम जो उपजत, उ महाविष कहते हैं। और सुकुटो तथा काटिक नाम भेद मण्ड क (मेंडक) कृष्ण, श्याद, चित्र, पाण्डु, गोमूत्र, सर्कग, निन्द, ८ प्रकारका है। उसमें फेम रहता है। दंशन करनेमे कृष्ण, ज्वत, रक्त एवं हरितवर्ण और रन्टोमयुक्त दष्ट स्थान खुजन्नान नगता पौर मुग्नु निकन्न पड़ता वृश्चिक मन्द विष होता है। उसने काटने वेदना, कम्प, है। विशेषतः भृकुटो और कोटिक्क मण्डू कर्क काटने- गावस्तम्भ, दष्ट स्थानमें कृष्णवर्ण, रतनाव तथा गोय, मे हाफिका मिन्न दाह, वमन और अत्यन्त मूछी न्चर एवं इस्तपादादिमें दंगन करनमे यातना प्रेर प्राया करती है। वेगको क्रमश: नगति देख पड़ती है। विश्वम्भर नामक कौटके दंशनसे दृष्ट स्थान पर रकवर्ग एवं पीतवर्ण, किन्तु उदरदेश कपिन्दर्य सर्षपको भांति शुद्र क्षुद्र पिड़ना पड़ती और शीत- और मर्व शरीर धूम्रवर्ण वृश्चिक मध्यविष है । उसके न्चर प्राता है शरीरका परिमाण ३ पर्व होता है । उसको उत्पत्ति अहिण्ड क नामक कोट के काटनेमे सूई चुभनेको मपं की पूति, मन्त मूत्र और पगड़ने है। उमई काटने- आंति पोड़ा, दाद, कराड, शोथ और मोह होता है। से निद्रा पर गोय, कण्ठनान्नी में मुक द्रव्यका अवरोध कठुमक नामक कीटके काटनेसे अङ्ग पीतवर्ण: पोर अत्यन्त मूच्छी पाती है। 1 1