पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लक्ष्मगा लक्ष्मण-रामायणोक्त एक अद्वितीय वीर और रघुकुल- लछमणके दोनों गाल प्रसन्नताके मारे लाल हो गये तिलक श्रीरामचन्द्र के छोटे पैमानेय भाई । सुमिनाके लन्मण स्वल्पमापी थे सही, पर रामके प्रति जव को गर्भसे उत्पन्न होने के कारण इनका एक नाम सौमित्रि भी। अन्याय व्यवहार करना, तब वे क्षमा करना नहीं जानते था। लडोयुद्ध में इन्होंने इन्द्रविजयो मेघनादको माग था। थे। जिन दिन फैकेयीने अभिपेचतोचल-प्रफुल्ल राम अध्यात्मरामायणमें लिखा है, कि अत्यन्त सुलक्षण चन्द्रको मृत्युतुल्य बनयामकी यामा सुनाई, उन दिन सम्पन्न होने कारण इनका नाम लक्ष्मण हुआ था। गमकी मूर्ति हठात् वैगन्यकी श्रीस भूपित हो उठी। "भरणाझरतो नाम लक्ष्मण लन्न गणान्वितम् । लेकिन लक्ष्मणने ऋद्ध हो अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे उनका पीछा । किया था। शाहनं शय हन्तारम्यं गुरुग्भापत ॥ अध्यात्मरामा० १३) इस अन्याय आदेशको ३ मदन न कर सके। राम- रामायण बालकाण्डमें लिया है, कि लक्ष्मण गम , चन्द्रने जिन्हें अकुगिठन चित्तसे क्षमा कर दिया है, चन्टके प्राण समान ये। राम जव चैटने तब ये भी बैठते लक्ष्मण उन्हें क्षमा न कर सके। रामका बनवास लेकर थे, जहां गम जाने, लक्ष्मण भी उनके माथ हो लेते थे, : दन्होंने कौशल्याके सामने घात बहश की थी। आमिर सो जाने पर पैरके समीप बैठते थे। आजन्म छायाकी कद्ध हो समरत अयोध्यापुरीयो नष्ट करना चाहा। तरह भाईके शानुगामो थे। रामके प्रसादके सिवा और इन्होंने रामको पर्त्तव्यधुद्धिको प्रशंसा नहीं की, इस किसी उपादेय पाद्यसे उनकी तृप्ति नहीं होती थी। राम गर्दित आदेशका पालन करना धर्म मदत नही है, इस जब घोड़े पर आखेटको निकलते, तव लक्षमण भी धनुष- प्रकार उन्हें चार यार समझाया था। वाण हाथमें लिये उनके शरीररक्षक रूपमे पीछे पीछे लक्ष्मण रामके साथ वन चले। इन सात्मत्यागी चलते थे। जिस दिन विश्वामिनके साथ राम ताडकादि देवता लिये किसीने चिलाप नहीं किया। यहां तक कि राक्षसका वध करने के लिये निविड़ वनपथसे जा रहे थे सुमित्राने भी विदाय-कालमें पुनके लिये आंसू नहीं उस दिन भी काफपक्षधर लक्षमण उनके साथ थे। भ्रातृ- बहाया था, बल्कि दृढ और स्नेहा कण्ठसं लक्ष्मणको मक्तिके विषयमें उनकी जितनी प्रसा की जाय, थोडी , कहा था, 'पुत्र ! जामो, स्वच्छन्द मनसे बन जाओ, राम- है। इस समय वनपधसे जाते समय दोनों भाइयोंको' को दगर यफे समान देखना, सोताको मेरे समान मानना अन्न-ऋष्ट होता था, इस कारण महामुनि विश्वामित्रने तथा वनको अयोध्या समझना।' इस प्रकार उपदेश दे कट दूर करने के लिये पक मन्त्रदान किया। पीछे दोनों कर सुमिताने लक्ष्मणको विदा किया था। भाइयोंने गौतमाश्रम जा कर अदल्याका उद्धार किया सारण्य जीवनगे जो कुछ कटोरता थी, उसका अधिक अनन्तर जनक भवनमें जाकर शिवका धनुष तोड़ा। भाग लक्ष्मणके ऊपर था! लक्ष्मणने बड़े माहारपूर्वक रामने सीताका और लक्ष मणने अमिलाका पाणिग्रहण उसे यपने शिर पर ले लिया था। पहाड पर पुपित किया। ऊर्मिलाके गर्भसे लक्ष मणके अङ्गद और चन्द्र- वन्यतरुराजिसे पुष्प तोड कर रामचन्द्र सीताके वालोंकी केतु नामक दो पुत्र हुए।

सजाते थे ; पद्मको उठा कर मीताके साथ मन्दाकिनीमें

रामका अभिषेक संवाद सुन कर सभी आनन्द सागर- स्नान करते थे अथवा गोदावरीतीरस्य चेतके वनमें में गोते खाते थे, पर लक्ष्मणके चेहरे पर जरा भी प्रस. सीताकी जांघ पर मस्तक रन पर सुपसे सोते थे। नता न थी, वे नीरव हो कर रामकी छायाकी तरह पीछे। इधर मौन-संन्यासी लक्ष्मण खंतासे मट्टी खोद कर पर्ण- पीछे चलते थे। राम स्वल्पमापो भ्राताका हदय अच्छी। शाला बनाते थे, कमी हाथमें कुठार ले कर शाखा- तरह जानते थे। अभिषेक संवादसे सुनी हो उन्होंने प्रशाखा काटने थे, कभी भैस और बैलका सूखा गोवर सबसे पहले लक्ष्मणको आलिङ्गन कर कहा, 'मैं जीवन इकट्ठा कर अग्नि जलानेशी व्यवस्था करते थे। कभी और राज्य तुम्हारे लिये ही चाहता हूँ।" यह मुन कर शीतकालकी चांदनी रातको पशोभित सरोवरसे