पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मक्ष्यो १३७ देवो जहां विराजित नहीं रहती है यहा हतभी दिमाई करनेके लिपे यहां जा पहुंचे। देवेन्द्रो मुगी को देख कर मान्य अवस्था में प्रणाम किया। इस पर महामुनि लक्ष मोदेवी पहले पैपुण्ठयागमें नारायणसे पूजी गइ। दुर्वासाने उहे आशीर्वाद दे कर पारिजातपुष्प प्रदान दिया पोछे ग्रह्मा और महादेवने उनकी पूजा की । अनन्तर और कह दिया कि यह पुष्प माल पापना गौर सव क्षीरोदमागरमें विष्णुने, भारत में स्वायम्भुप मनुने, मान प्रकारका मलीदान है। उन्होंने यह भी कहा, कि जो येन्द्र, भूपीद्र, मुनाद और साधुगृहिगणने तथा पाताल भक्तिपूर्वक धीहरिये रणों में निवेदित यह पुप मस्तक में नागोंने यथामम उनका पूजन किया था। पहले ग्रहाने पर धारण 7 फ्रेगा, यह वगणके साथ श्रीभ्रष्ट होगा। भाद्रमासकी शुकाटमोसे समस्त पप भक्तिपूर्वक उनकी उस समय इद्र ठात्यात कामो मत्त थे। उन्हें पाया पूजा को धी। तभीस त्रिलोकम घद्द पद्धति प्रचरित है। कत्तव्यका कुछ भी ज्ञान था। अनपच दुर्वासाके चैत्र, पीप और भाद्रमासके शुद्ध और मङ्गजाक घले जाने पर उन्होंने भ्रावशतः यह पुषण ऐरावतके दिन विष्णु की पूरी की। पोछे विलोकयामो भी मस्तक पर फेंक दिया। ऐगवत उस पुष्पयो मस्तक हा तीन महीने रक्ष मीदेवाको पूजा परने लगे। मनुने पर धारण करते हो द्रपा परित्याग पर जगल चला पीपमासफे समन्ति दिनमें प्राङ्गणके मध्य लक्षमीका गया। इद्र उसी समय स्वजनांके साथ श्रीभ्रष्ट हुए। । पूजन किया। धीरे धार यह पूजन भा स सारमे प्रचरितद्रको धीम्रष्ट होते ग रम्मा भी उ छोर चली गा. हो गया। इसपे बाद राजेन्द्र, मङ्गल, घेदार, पलदेय, सब इन्द्रकी नींव हटी, वे होश आये। सुवल, ध्रुध, द, बलि, कश्यप, दक्ष आदिने उनकी पूजा द्रघडे दुःखित हो अमरावती गये। अमरावती ज्ञा कोपी। पर उन्होंने पुरीपो निरानन्दमय, शलोंसे परिपूर्ण, दोन | स प्रकार यह सर्व सम्पत्स्वरूपिणी सपर ऐश्वर्य । भाषापा तथा वधु वाधवरजित देखा। पीछे इनके की अधिष्ठात्री देवी रक्ष मी सयदा मत्र समो लोगोंसे मुझसे कुल वृत्तात सुन कर वे देवताओं के साथ प्रसाफे पन्दित गीर पूजित होती हैं । रक्ष मीदेवी वैकुण्ठम पूर्ण | निकट गपे । प्रमाको जय कुल हाल माम मा तय घे भाधर्म तथा चरावर प्रहाएटम अशमावर्ग विरा] द्रिसे पहने रग, देवेद्र । तुम मेरा प्रपात हो। निरन्तर जित हैं। धीके माधयमें तुमने उज्ज्वल दीप्तिपो धारण किया था, मारायणसे रक्ष मीदेवीको उत्पत्ति मादिका वियरण तुम लक्षमी सदृशी शचीका स्वामी हो। शिर भी तुम सुाफर नारदके मनमें एक महा स शय उपस्थित हुभा! सर्वदा पराई स्त्रीमें फसे रहते हो, पहले तुम गौतमके यह संशय दूर करनेके लिये उ होने भगवान से प्रश्न किया। शापसे भगाङ्ग हो गया था तिम पर भी तुम पर स्त्री कि सक्षमोदी रासमएटर में आविर्भूत हुइ, किन्तु रमण नहीं छोडा । जो पर स्ना-रमण परता है, उसकी श्री उनका नाम सिधु तनपा क्यों पडा १ समुद्र मध कर देव और पश नष्ट होता है। इत्यादि प्रकारसेटको तिरस्कार साओने किस प्रकार लक्षमीको पाया ? आप यह स शय पर लोकपितामहने फिरसे कहा 'ममा तुम भगवान दूर कर फ़्ताथ करें। | विष्णुफी आराधना करो, ये तुम्हे लक्ष मी प्राप्तिका उपाय भगवानने कुछ मुसकुरा पर कहा, 'नारद । पहले , पतला देंगे। दुवासा मुशिफ अभिशापसे जय दवराज, देवगण और अनतर द नारायणके उद्देशसे कठोर तपस्या मर्यघासी सभी श्रीम्रष्ट हुए तब लक्षमीदेयी रुए हो परम करने लगे। तपस्यासे प्रसन्न हो पर पारायणी दुखितात रणसे स्वगादिका परित्याग कर वैकुण्ठधाम | लक्षमीशे मिधु न्यारूपमें जम रेगे कहा। पोले गइ और महालक्षमीमें लीन हुई। एक दिन देघराज रक्षमा पाने के लिये देव दानपने मिठ पर समुद्र माथा इन्द्र अतिशय कामीमत्त भावमें रम्माका द्वार पर रहे दिया था। इस समुद्र मन्थन दिने सम्पत् सापिणी थे। इसी समय भरस्मात् दुर्वासामुनि शहरफी पूजा] रक्षमीको पाया। नारायणको माहासे उनके निजाशस Vol, x., 35