पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/१४१

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लक्ष्मी सिन्धुकन्यारूपमें लश्न मी प्रादुर्भूत हुई थी। समुद्रसे। कन्या और आश्रयरहित वान्धयोंका पोषण न करके उत्पन्न हो कर लक्ष मीन देव आदिको वर दिया। सर्वदा धनसञ्चयमें लगा रहता है, मैं कभी भी उनके लक्षमीको कृपाले इन्द्र राज्य और श्रीयुक्त हुए थे। उस घर नहीं जाऊगी। समय सबोंने मिल कर लक्षमीदेवीका स्तव किया था। जिम व्यक्तिके दन्त अपरिष्कृत, वस्त्र मलिन, मस्तक (ब्राव वर्त पु० ३३ ३६ १०) | रुम, प्रास और हास्य विकृत है तथा जो मूर्ख मूत्रविष्ठा पक्ष मीचरित। त्याग करने समय मूत्रादि त्याग करनेवालेको देखता है, लक्षमी किस किस स्थानमें रहती है और कहां कहां जो भींगे पैरको धो कर वा पैरको न धो कर सोता है, नहीं रहती है उसका विषय पुराणादिमें इस प्रकार जो नंगा सोता है, जो शाम वा दिनको शयन करता है लिम्ला है, यह लक्ष मोचरित्र परम पवित्र है । जो भक्ति । उसके घरमें कभी भी पदार्पण नही करूगी। जो व्यक्ति पूर्यफ उसे सुनते हैं उनका दुःन दूर होता है । लक्ष मी. पहले शिरमें नेल लगा कर पीछे दूसरे अंगमें लगाता है, देवी जब समुद्रले उत्पन्न हुई, तब बगिरा, मरीचि आदि | जो नेल लगा कर विटामूत्र त्याग करता, प्रणाम करता ऋषियोंने उनका पूजन और स्तव का कहा था, 'मातः। वा फल तोडता है जो नाखूनसे तृण काटता और जमीन आप देवताओं के घर और मर्त्यलोक जाइये । जगजननी फोड़ता है, जिसके शरीर और पैरमे मैल रहता है, उस लक्ष मीने देवतायोसे यह वचन सुन कर उन्हें कहा, 'मैं पर मेरी कृपा नहा रहती। जो व्यक्ति जान बूझ कर आत्म बामणों की सलाहग्ने देवताओंके घर और मर्त्यलोकमें | दत्त वा परदत्त ब्राहाणकी या देवताकी वृत्ति हरण करता अवश्य जाऊंगी। है मुनीन्द्रगण भारतवर्णमें मैं जिनक है, उसके घर में मेरा स्थान नहीं। जो मन्दबुद्धि, शठ, घर जाऊंगी सो ध्यान दे कर मुनो। दक्षिणाविहीन, यज्ञकारक और पापी है नथा मन्त्र और ___ मैं पुण्यवान सुनीतिछ गृहस्थ और राजाओंके घर विद्या द्वारा जीविका निर्वाह करता है, जो प्रामयाजी, स्थिरभावमें रह कर उन्हें पुनके समान प्रतिपालन | चिकित्सक, पाचक और देवल, जो क्रोधवशतः विवाह- फलंगी। गुरु, देवता, माता, पिता, पान्धव, यतिथि कम वा अन्य धर्मकार्यमे बाधा पहुंचाता है तथा दिनको और पितृलोक जिनके प्रति रुष्ट है मैं उनके घर नहीं जा मेथुन आचरण करता है, मैं इन सब ध्यक्तियोंके घर नहीं सकती। जो व्यकि हमेशा चिंता करता रहता है तथा जाती । (ब्रह्मवैवर्त पु० गणेशख०,२१, २२८०) । जो सर्वदा भयभीत, शत्रुग्रस्त है, जो अत्यन्त पातकी, ___पद्मपुराणमें लिम्बा है, किफ दिन केशवने मेरुपृष्ठ ऋणग्रस्त या यतिशय कृपण है उन मब पापियों के घर पर सुखसे बैठी हुई लक्ष मोसे पूछा था, 'देवी! तुम कहां मैं पदार्पण नहीं करगी। जिस व्यक्तिने दीक्षा नहीं। पर निश्चल हो कर रहतो हो।' उत्तरमें लक्ष मीने विष्णु- ली, जो सर्वदा शोकपीड़ित, मन्दबुद्धि, स्त्रीके वशी- से इस प्रकार कहा था- भूत है, जिसकी स्त्री और माता वेश्या है, जो कटुभापी मेरपृष्ठे सुखासीना लतमी पृच्छनि केशवः । दै, हमेशा फलद्द करता है, जिसके घर हमेशा कलह होता केनोपायन देवि स नृणा भवनि निश्चला।। है, जिसके घरमें स्त्रियां प्रधान है, उनके घर में प्रवेश श्रीस्वाच । नदी फरगी। जो व्यक्ति हरिपूजा और हरिका गुण गान शुमला: पारापता यत्र गृहिणी यत्र चोज्ज्वला । नहीं फरता अथरा जो हरिकी प्रशंसा करना नहीं अकत्तहा वसतिर्यत्रतत्र कृष्ण वसाम्यहम् ।। चाहता, जो व्यक्ति फन्या विक्रय, आत्म-विक्रय और धान्य नुवर्ण सदृश तण्डुला रजतोपमाः । चेद विक्रय करता है यह नरदत्याफारक और हिंसक है, अन्नन्चैवानुषं यत्र तत्र कृष्ण वसाम्यहम् ॥" उसका घर नरकके समान है। यहां मैं कदापि नहीं (स्कन्दपु० लद मीचरित्र) आऊंगी। जो व्यक्ति कृपणता, दोपसे दुपित हो कर जहां सफेद कबूतर रहते हैं, जहां गृहिणी सुन्दरी और माना, पिता, मायर्या, गुरुपत्नी, गुरुपुत्र, अनाथा, मगिनी, कलहद्दीना है, वहां मैं अवस्थान करती । जहां धान