पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/२०५

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लवङ्गादिवटो-लवण ३ स्त्रीरोगाधिकारोक्त औपधभेद। प्रस्तुत प्रणाली विभिन्न स्थानीय नाम | बम्बई-नमक, नीमक; लनड़, सोहागेका लावा, मोथा, धवफूल, वेलसोट. मराठी-मीठा, गुर्जर-मिछ, नामिल---उप्पू ; नेलगू- धनिया, जायफल, सफेद धूना, सोयाँ, अनारके फलका लवणम्, उप्प ; कनाड़ी-उप्पू: मलयालम्,--उप्पू , लव- छिलका, जीरा, सैन्धव, मोचरस, सुन्दिमूल, रसाञ्जन, णम् ; ब्रह्म --श , गिङ्गापुर-लुणु , अरव-मिल. अवरक, रांगा, वराक्रान्ता, रक्तचन्दन, सोंठ, अतसी, कर्कट: लुल आजिन, पारस्य - नमक, नमक, खुर्दानि, नुमके शृङ्गी, खैर और अतिवला समभाग चूर्ण कर एक साथ तायाम् , यव-उया , चीन येन् । अङ्रेजी-fea-salt, मिलावे । अनुपान करीका दूध बताया है। गर्भावस्था । common salt, table-salt; फरासी-Sel Commun संग्रहग्रहणी, अतिसार, ज्वर और आमरक्तातिसार होनेसे sel de Cuisine, scl farin , जर्गन-( hlorantrium इसका प्रयोग करना चाहिये। इस चूर्ण को भगरैयेके | Kochsal7 , डेनमार्क और स्वडिस-Salt, इटली- रसमें भिगो कर तीन दिन तक भावना देनी होती है। (Chloruro-di-Sodio, Sal commune, स्पेन-Sal | ४ गुल्मरोगाधिकारोक्त औपधभेद । प्रस्तुत प्रणाली भारतमें प्रधानतः दो प्रकारके लवणका व्यवहार लवन, निसोथका मूल, दन्तीमूल, यमानी, सोंठ, वच, देखा जाता है 1 पहला सादा लवण (Sodium chlo. धनिया, चितामूल, त्रिफला, पीपल, कटकी, दाख, चई, .. ridc ) मीर दुसरा कृष्ण लवण चा चिट् लवण | विट गोखरू, यवक्षार, इलायची, वनयमानी ( अजमोदा) और लवणमें साधारण लवणका भाग रहने पर भी उसमें इन्द्रजौ इन्हें चूर्ण कर २ तोला भर गरम जलके साथ अन्यान्य दम्य मिला रहना है। इस कारण वह बहुत सेवन करे । इससे सभी प्रकार के गुल्म, अर्श, शोथ आदि' कुछ भेषजगुणयुक्त है। स्थान विशेषमे उस गुणमें नष्ट होते है। कमी वेशो देवी जाती है। साधारणतः विटलवणमें लवङ्गादिवटी ( स० स्त्री० ) १ अग्निमान्द्यरोगाधिकारोक्त : Sulphuret of iron पाया जाता है । क्लोराइड और औषधभेद । प्रस्तुतप्रणाली-लबद, सोंठ, मरिच और ; कार्वनेट अव सोडियमको गरम कर उसमें आंवला सोहागेका लावा वरावर वरावर चूर्ण ले कर तथा अपामार्ग और हरें मिलानेसे जो गुण पाया जाता है, विट्लवणमें और चितामूलके काढ़े में भावना दे कर एक रत्तोकी । प्रधानतः वही गुण रहता है। गोली वनावे। इसके सेवनसे मांस आदि कडी वस्तु हिन्दूगण स्मरणातीत फालसे ही लवणका व्यवहार पच जाती है। ( भैषज्यरत्ना० अग्निमान्याधि०) . जानते थे। अथ वेद ७७६/१, आश्वलायनश्रौतसूत्र ___२ अजीण रोगाधिकारोक्त औषधविशेष। प्रस्तुत , २२१६२४, छान्दोग्य उपनिषद् ४।१०७,, शतपथब्राह्मण प्रणाली-लवङ्ग, जातीफल, धनिया, कुट, सफेद जीरा, १४।५।४।१२, आश्वलायन गृह्यसूत्र १२८।१०, गोभिल वहेड़ा, इलायची, दारचीनी, सोहागा, कौड़ीकी भस्म, २२३११३ आदि प्राचीन प्रन्योंमे लवणका बहुल-प्रचार देखा मोथा, वच, अजवायन, विटलवण, सैन्धवलवण, प्रत्येक जाता है । महामुनि सुश्रुतने स्वकृत मायुर्वेदशासमें एक भाग, पारा, गंधक, लोहा, अवरक, प्रत्येक आधा लवणके निम्नोक्त भेद बतलाये हैं। भाग, इन सब चूर्णीको एकत्र कर पानके साथ गोली सुश्रुतमें लिखा है, कि सैन्धव, सामुद्र, विट, सौव- वनावे । इसका अनुपान गरम जल बताया गया है । इसके ाल, रोमक और उद्भिद् आदि लवण पराक्रमसे उष्ण, सेवनसे ग्रहणी, आमदोप, पेटकी वेदना, प्रवाहिका, ज्वर, वायुनाशक, कफ और पित्तकर तथा पूर्वक्रमसे स्निग्ध, कफजनितशूल, कुष्ठ, अम्ल, पित्त, प्रवलवायु, मन्दाग्नि स्वादु और मलमूत्रका सञ्चयकर है । सैन्धव, स्वच्छ, और कोष्टगतधात आदि रोग जल्द दूर होते हैं। विट, पाक्य, साम्भर, सामुद्र, पक्तिम, यवक्षार, उपहार (ग्सेन्द्रसा० अजीर्यारोगाधि० ) , और सुवचिका आदि लवणवर्ग है। लवण (सं० क्ली० ) लुनाति जाग्यमिति लु-नन्दादित्वात् इनका गुण-लवणरस, पाचक और संशोधक है। इस- ल्यु, पृपोदरामित्वात् णत्वं । क्षाररसयुक्त द्रष्य, नमक । से रसोंका विश्लेषण तथा शरीरका क्लेद और गैथिल्य