पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/३०३

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लिङ्ग

एकत्र हुए। वे पिसमें - थालोचना रने लगे, कि कथाप्रसङ्ग में ब्रह्मा और विणुके विरोध भञ्जनार्थ सैकड़ों वेदविद् ब्राह्मणोके मध्य मौन देवता पूज्य है। कालानल सदृश लिङ्गलपी महादेवके आविर्भावकी कथाएं अन्तमें यह निश्चय हुआ, कि शिव, विष्णु और ब्रह्मा, हें। (१७३१ ३२ ) लिङ्गरूप देख कर विष्णु और ग्रह्मा तीनोंके पास चल कर इसका निर्णय करना चाहिए। विह्वल हो गये। उस समय अझम्मात् मोकार वाणी सवपि पहले शिवके पास गये। द्वार पर पहुंच फर निकली । इम ओंकारका तात्पर्या नीचे दिया जाता है,- उन लोगोने देखा, कि दरवाजा बंद है नौर नन्दि पहरा अस्य निझादमृद्वीजमकारं वाजिनः प्रभोः । दे रहा है। तब ऋपियोंने नान्दसे कहा,-तुम शीघ्र जा उकारयानी ये क्षिप्तमवईत समन्ततः ॥ ६४ कर महादेवको हम लोगोंके आनेको खबर दो । हम | अर्थात् वोजि महेश्वर लिङ्गमे यकार वीज उत्पन्न लोग उन्हे प्रणाम करने के लिये यहां आये है। नन्दिने | हुआ और वह उकाररुप योनिमें पड पर चारों ओर फैलने कर्कश शब्दसे अवज्ञा करते हुए तेजस्वी ऋपियोंसे कहा, लगा। इस प्रलोककी विशेषरूपमे पर्यालोनना करने 'यदि तुम्हें अपने प्राणका गय है. तो तुरत लौट जाओ. म्पष्ट मालूम होना है, कि लिङ्ग ही सूटिशनिका परि• देवादिदेवसे अभी तुम्हें मुलाकात हो नही सकती। वे चायक है। इस शिवशक्तिको उत्तरमाधक-लिङ्गमृत्तिम पानी माथ क्रीडा कर रहे हैं।' ऋपियों को प्रतीक्षा| जिस प्रकार शिवपूजा विहित है, उमी प्रकार शक्ति- करते बहुत काल बीत गया। इस पर शृगु ऋपिने | योधक योनिमूर्ति भी शक्ति पूजाकी व्यवस्था देवी कोप करके शाप दिया-"हे शिव ! तुमने काम क्रीडाके | जाती है। चगीभूत हो कर हमारा अपमान किया , इससे तुम्हारी "पीठारुतिस्मादेवी निग्नरूपच शहरः । मूर्ति योनि-लिङ्ग रूर होगी और तुम्हारा नैवेद्य कोई प्रतिष्ठाप्प प्रयत्नेन पूजयन्ति सुगनुराः॥' ग्रहण न करेगा। ब्राहाण तुम्हारी पूजा नही करेंगे, करने- (निन्नपु० उत्तरस० ११३३१) से सवाण्यत्वको प्राप्त होंगे।" भृगु इस प्रहार साप उक्त अध्याय के 39पे ले कर ४० श्लोकमें लिखा है, दकर मुनियों के साथ ब्रह्मलोको ब्रह्माके पास चले गये। कि ब्रह्मादि देवगण, ऐश्वर्यशाली राजगण, मानवगण लिनपुराण पढनेमे मालूम होता है, कि देवर्णि और मुनिगण सभी शिवलिङ्गकी पूजा करते है । भगवान् नारदने जहा जहा रुद्रदेव के पवित्र तीर्थक्षेत्रों को देखा था, विष्णुने भो ब्रह्माके वरपुत्र रावणको मार कर समुद्रके वहा वहां लिट्रपूजा की थी। (१११२) यह लिङ्ग किनारे बडी भक्तिसे विधिवत् लिङ्गको आराधना की थी। क्या है तथा क्यों स्सारमै सयोंज्ञा इतना पृज्य हो गया | लिङ्गमी अर्चना करनेसे सौ ब्राह्मण वध करनेका पाप है, यह सूतकी अभिव्यक्तिसे स्पष्ट हो प्रतीत होता है। नष्ट होता है। यह लिङ्ग साधारणतः दो प्रकारका है-निष्कय और | ___इक्कीसवें अव्यायके ७६ ८३ श्लोकमें लिखा है, कि निणमय शिव अलिङ्ग तथा जगत्कारणका शिव ही लिङ्ग अग्निहोत्र, वेदाध्ययन, बहुदक्षिणक यज्ञादि शिवलिङ्गा- हे । इस अलिङ्ग शिवले लिङ्ग शिवसी उत्पत्ति है, ये स्थूल र्चनाके एक कलांशा भी बराबर नहीं है। जो दिन। कम, जन्मरहिन, महाभूनस्वरूप, विश्वरूप और जपत्का सिर्फ एक दार लिङ्गकी पूजा करते हैं, वे साक्षात् रुद्र गया है । लिङ्ग कहने से हो शिवसम्बन्धीय लिङ्ग समझना कहलाते हैं। शिवती पूजा करनेसे धर्म अर्धा काम और मोक्षफल मिलता है। होगा। (लिङ्गपु० ३११०) फिर उक्त पुराणके सप्तदश अध्यायके पाचवें श्लोक्मे लिखा है,-"प्रधानं लिङ्ग- लिङ्गपुराण पूर्व भागके २५ २७ अध्यायमें शिव- पूजाका स्थान निर्वाचन और पूजोपकरणादिका यथायथ मान्यातं लिङ्गी च परमेश्वरः ।' वचन देखनेसे अनु विवरण लिखा है। शक्तिके चिन्ग शिवपूजा नही करनी भान होता है, कि लिङ्ग हो प्रधान है तथा उसी प्रधान चाहिये। एकमात्र शिवलिङ्गपूजाके शिव और शक्ति को प्रकृति या शिवशक्तिको लक्ष्य पर महेश्वरको दोनों की पूजा कह कर पुराण और तन्त्रमे उनकी पूजाको लिङ्गः कहा गया है । उक्त अध्यायके अपरापर विधि कही गई है।