लिङ्गक-लिङ्गनाश
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पोछे सदार मुद्रा द्वारा एक तिमाल्य पुष्प सूघते हुए उस । द्रियों और कर्मेन्द्रियोंको सव पृत्तिया रहती हैं, केवल
त्रिकोण मण्डलके ऊपर देना होता है। इस समय ऐसा उनके स्थल रूप नहीं रहने । इस ददमें सत्रह तय माने
मोचना चाहिये कि पूजित देवता मेरे हृदयपद्ममें प्रविष्ट | गये है--१० इन्द्रिया, २ मन, ५ तामात्र और बुद्धि ।
हुए। इसके बाद पते गन्धपुष्पे ओं चण्डेश्वराय नम' लिनद्वादशनत (स० लो०) प्रतभेद ।
'ओं महादेव क्षमखें' कह कर शिवको रे मएडर के ऊपर लिङ्गधर (स. त्रि०) चिधारणकारी, गुणवा ।
रख देना होता है।
लिङ्गधारण (स फ्लो०) यश या धर्मसम्प्रदायके पाथषण
प्रस्तरमय शिवलि गो पूनामें आवाहन, विसर्जन |
सूचक चिहादि धारण करना।
और गठनादि नहीं होते। पूजाप्रणालो सभी पुयित् रिडधारिन (स.नि.) १ चिद्वधारी । २ जो शिर
है।घल स्नानके समय 'यो नम शिवाय नम 'मनसे लिड धारण परे। शेष या जङ्गमसम्प्रदाय के साधु लोग
स्नान करना होगा जलमें शिरपूजा करनेसे आवाहन | गलेम अघमा भुजामोंमें महादेवको लिङ्गमूर्ति धारण
और विसर्जनादि नहीं होता। दो बाणेश्वराय नम ' इस |
३० करते हैं।
मनसे उपचारादि देने होते हैं। सभी प्रकारके पुष्पोसे लिधारिणा (स. स्त्री०) नैमिषस्थ दाक्षायणीको एक
शिवपूजा नहीं करनी चाहिये। मल्लिका, मालती, जाती, |
मूर्ति ।
शपोलिशा, जया, यकुल और नगरपुष्प निपिद्ध है । वाण सि .ए) लिग इद्रियशक्ति दृष्टि शय
लिग पूजाफ बाद स्तवपाठ करना उचित है।
तोति । १ नेत्ररोगविशेष, नीलिका नामक नेत्ररोग।
पिघपुराणमें यारह ज्योतिर्टि गका उल्लेख है। ये सभी |
आखके तोसरे या चौथ पटलमें विकार होनेसे यह
ज्योतिलिंग लि गसे श्रेष्ठ है। इन बारह ज्योतिर्लि गौमसे
रोग होता है। सुश्रुतमें इस रोगके सम्य धर्मे इस प्रकार
फाशीक्षेत प्रधान है। यहाके विश्वेश्वर मामक लिग
लिखा है-दृष्टिविशारद पण्डितों का कहना है, कि मनुष्य
प्रथम है । बदरिकाश्रममें केदारेश्वर, धीशैल पर मलिका
को दष्टि पञ्चभूतफे गुणसे बनी है। पाह्यपटल दाव्यय
ज्जुन नामक लि ग और मोमशङ्कर लिग मोकाग्में अम
तेज द्वारा भारत, शोतर प्रातिविशिष्ट तथा सद्योतके
रेश उजयिनामें महाक लेश्वर, सूरतम सोमनाथ पारली
दोनों विस्फुलि गसे निर्मित मसूरदलके समान वियरा
में बैद्यनाथ, मोरदेशमें नागनाथ, शैवालमें सुरमेश, ब्रह्म
रति दोष विगुण हो पर शिरायोंके भातर जाता और
गिरिमें नाम्या और सेतुब घमें रामेश्वर लिग है। यही
इटिशक्तिको हास करता है। दोपके चौथे पटलमें होोसे
पारह ज्योतिर्लि ग है । इन ज्योतिर्लि गक दर्शन पूजन
तिमिर रोग होता है। इसमें हठात् दर्शनशक्तिका रोध
मादिस इह और परलोकमें अशेष कल्याण साधन होता
है। (शिरपु० उचरण ३ म.)
होनेसे उसे लि गाश कहते हैं। यह रोग पटिर महीं
लिहा (म0 पु०) लिन कायतीति के क। कपित्थश,
होनेसे वदा सूर्य विद्युत् और नक्षत्र विशिष्ट काम
कैपका पेड़।
तथा निर्मल तेज और ज्योतिः पदार्थ दृष्टिगोचर होता
लिङ्गगुण्ठमराम-झाररसोदय नामक मिश्रमाणके प्रणेता।
हैं । लि गनाशरोगको इस अस्थाको नीलिका कार
लिङ्गजा (स. स्रो०) लिड्नी रमा।
कहते हैं।
लिङ्गतोभद्र (सं००) १ ततोत मनात्मा चाभेद ।
यहरि गनाशरोग घातादि दोपस दुप होकर क
२ दोधितिभेद।
प्रकारका हो जाता है। यदि यह सयु द्वारा उत्पन्न हो
लिङ्गर (स.हो.) लिङ्गम्य माया । लिङ्गका माय पा तो समो पदार्थ राल, सचर और मैले दिपार देते हैं।
धम।
पित्त द्वारा होनेसे आदित्य, प्रद्योत, धनु तडि
रिङ्ग (स.पु०) यह सूक्ष्म शरीर जो इस स्थूल शरीर और मयूरपुच्छकी साह विचित्र नील गधा परणके
के मर होने पर भी संस्कार के कारण कमांक फर भोगने | नजर आते है। अधया समो वस्तु जलायित सो
परिपे जोयात्माक साथ लगा रहता है। इसमें मारे ! मालम होती है। रक द्वारा होनेसे समो वस्तु ठाल
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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/३१६
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