लिङ्गपशप-निविपर्यय और अन्धकारमय विवाट देती है। फफ द्वारा उत्पन्न 'लिप्रतिष्टाविधि ( स० पु०) शिवादि लिनस्थापन होनेसे सफेद और चिकनी , सन्निपात द्वारा होने हरित, पदति । कृष्ण, धृन आदि विचित्रवर्णविजिट और ग्यि की तरह लिगभट्ट-पक अमरकोपटीका रचयिता। तथा छोटी वडी टिस्वाई पड़ती है। लिदमादात्म्य (सं० सी०) देवलिगका महत्त्य । पुगणाटि- लिइनामगेगमे छ प्रकार के वर्ण होने है। वायुज- : मे तीर्थप्रसंग उन उन स्थानोंके देवलिंगको महिमा रोगने दृष्टिमण्डल रक्तवर्ण, पिन कत्त, परिन्नायिरोग । कीर्तित हुई है। स्कन्दपुराणके अवन्निग्यएटमें इसका या नीलवर्ण, इलेमा तक ज्येनवर्ण, गोणित र्शक , विशेष विवरण मिलना है। कवर्ण तथा सनिपात तक विचित्र वर्ण दृमा करना लिमूर्ति (सं० पु० ) लिंगरूपा मृर्शिय म्य। गिव । है। इसकी चिमिन्दाका विषय नेत्ररोग दम देना। लियमूरि--अमरकोपपदविवृतिक प्रणेता। ये दंगल. लिङ्गस्य नामः । २ सन्मदेहका विनाम, मोक्ष कामय मत्रोपाध्याय पुत्र थे। ३४वजमङ्गरोग। ४ अधरोग जिसमे वरतुकी पहचान लिरोग (सं० पु०) लिदम्य रोगः । लिगका रोग, गों। न हो सके, अधिकार, तिमिर। । लिङदेशमें हाय, नाचून या दाँतमा आघात लगने लिडपरामर्ग ( म० पु० ) न्याय के अनुसार लक्षगामिद , लिदको अपरि कार रम्बनेसे, अतिरिक स्रोप्रमद करनेमे, मीमांमाझा पर भेद । अने धृमत्त, धृमनिह ही अग्नि- दृषित योनिमें उपगन होनेसे तयो बन्याय नाना प्रकार का उद्बोधक है । मनिट के अनुमानले दाग्नि प्रतिपादित के उपचार द्वारा लिने बातिक समिक, सान्नि हुई है इसलिये वह लिङ्गपगमप सिन्द्र हुआ है. पेसा ! पानि और रक्तजये पांव तारके, उपदंशोग होते है। जानना होगा। उपदारोग शब्द देखो। लिङ्गपीठ (स० क्लो०) मन्दिरकी वह चीकी जिम,पर देव-लिटलेप (सं० पु०) रोगभेट । लिन स्थापित रहता है। इसे गर्मपीठ भी नहते है। ! (गजसग्निणी २११२६) लिगवन् (सं० वि०) १ चिहयुक्त। (भाग० ७२००४ ) लिङ्गपुराण ( स० ली० ) महर्षि वेदव्यास-प्रणीन एक (पु०) २ लिगोगानक या शिवलिंगधारी एकशेयसम्प्र- दाय । अधिक सम्मत्र है, कि इस लिगयत् शब्दसे दाक्ष पुराण। यह पुगण अष्टादश पुगणोंने पांचर्चा पुगण है। शिवमाहात्म्य तथा लिङ्गपूजाका प्रचार करना हो दम जात्य के लिगायत सम्प्रदायका नामकरण हुया हो। पुराणका उद्देश्य है। इस पुराणके दो भाग लिङ्गपद (सपु०) लिग वतीति गृध-णि अन् । और उत्तर । पूर्व भागसे सृष्टिविवरण, लिटजी १ कपित्यक्ष, कैथका पेड । २ लिंगमृद्धिारण, लिंगका बढ़ाना। और पूजाप्रसन्न, दक्षयज, मदनमस्म, गिवविवाह, वराह ! ___ कुष्ट माप, मरीच तगर, मधु, पिपली, अपामार्ग, चरित, नृसिंहचरित्र, सूर्या और सोमवंशका विवरण है।। अश्वगन्धा, वृहती, सितलप, यव, निठ और सैन्धव इन उत्तर भागमे विष्णुमाहात्म्य, शिवमाहात्म्य, स्नानदानादि सब द्रयों को एक साथ चूर्ण कर लिंग और स्तनकी माहात्म्य पार गायत्रीमाहात्म्य आदि विषय लिये गये मालिश करनेसे वह बढ़ता है। . है। इम पुराणम अष्टाविंशति अवतारोंको कथा और लिवर्द्धन (सं० पु०) शिश्न या लिङ्गको बढ़ना। श्रीकृष्णक अयनार पन्ति राजवंशका वर्णन लिखा है। लिदयडिन (म०वि०) १ लिनको बढानेवाला। (स्रो०) इस पुराणके मतसे प्रलयके पश्चात् अग्निमय शिवलिङ्गग २ एक लता। की उत्पत्ति होती है और उसी शिवलिङ्गले बटादि गास्न लिङ्गवर्धिनी (सं० स्त्रो०) लिङ्ग वर्द्धयनीति वृध णिच उत्पन्न होते है। ब्रह्मा विष्णु आदि देवगण इसी शिव-। इनि, टीप । अपामार्ग, चिचडा। लिङ्गके नेजसे ही तेजस्वी हुए है। बहुतोंका विश्वास है । लिङ्गस्तिरोग (सं० पु०) लिङ्गार्थ नामक रोग । कि इसी पुराणके मनले इस देशमे लिइपूजा और मूर्ति लिनविपर्याय ( स० पु० ) घ्याकरणोक्त पुस्खयादि लिङ्गका की पद्धति प्रचलित है। पुराण देखो। परिवर्तन, चिहका वैपरीत्य।