पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष विंशति भाग.djvu/३४५

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३५० लुता विप है या नहीं ऐस्म स देह होने पर औषध इस प्रकार | लता है। मूत्रसे दष्ट स्थानका मध्यस्थल काला और संवन आना होगा जिससे कोई दूसरा दोप उत्पन्न न अन्तर्भाग लाल होता है तथा वह स्थान फट जाता है। होने पावे। विपार्श रोगीके लिये ही औषध गुणकारी | दातले काटनेसे वह स्थान वाठिन और विवर्ण हो जाता है। विपहीन शरीरमे सुखसेव्य औषधका प्रयोग नहीं है तथा शरीरमे चकत्ते पड़ जाते हैं। वे सव चकत्ते करना चाहिये। अतएव विप है या नही पहले इसका फैलते नही, एक से रहते हैं । लूनाके रज, पुरीप पता लगाना परमावश्यक है। इसका पता लगाये विना | और शुक्र संस्रबसे पके पीलू-फलकी तरह फोडे निक- औषधका प्रयोग करनेसे रोगीके जीवननाशकी सम्भा- | लते है। वना है। साधारणत. लूताका विप दो प्रकारका होता है, ___जिस प्रकार अकुरमानके उत्पन्न होनेसे किस जाति- कष्टसाध्य और असाध्य। असाध्य लता-विपमें किसी का वृक्ष है, यह जाना नहीं जाता, उसी प्रकार लूताविप | प्रकारको चिकित्सा नहीं करनी चाहिये। चिकिन्ता के शरीरमे फैलते ही किस जातिको लताका विष है, करनेसे कोई फल नही होता, इसीसे इसको असाध्य इसका निर्णय नहीं किया जा सकता । पहले दिन शरीर कहते हैं। निमण्डला, श्वेता, कपिला, पीत्तिका, अलि- में कण्डयुक्त प्रसारणशील, मण्डलाकार सौर अस्पष्ट | विपा, मूत्रविपा, रता और कसना ये आठ प्रकारके लूता- वर्णविशिष्ट लक्षण दिखाई देते हैं। दूसरे दिन उन सब विप कष्टसाध्य है । इनके काटनेसे मस्तक, पीडा, कण्ड मण्डलाकारोंका मध्यस्थल निग्न और चारों ओरका | और काटे हुए स्थानमें वेदना होती है तथा वातश्ले'म अन्तर्भाग सूज आता है तथा जैसा वर्ण होता है वह स्पष्ट जन्य अन्यान्य रोग उत्पन्न होते है। जाना जाता है। तीसरे दिन किस जातिकी लताका विष सौवर्णिका, लाजवर्णा, जालिनी, पणापदी, कृष्णा, है, इसका पता लग जाता है। चौथे दिन विपका प्रकोप अग्निवर्णा, काकाण्डा और मालागुणा ये थाउ प्रकारके होता है। पाच दिनसे विपके प्रकोपसे विकार उत्पन्न लू ताविप असाध्य हैं। इनके काटनेसे काटे हुए स्थानमें होते हैं। छठे दिन विप सञ्चारित हो कर सारे मर्मस्थान- फोड़ा निकलता और उसमेंसे खून बहता है । स्वंद, दाह, को ढक लेता है। सातवे दिन विप वहुत बढ़ जाता अतिसार और सन्निपातजन्य अन्यान्य रोग उत्पन्न होते और सारे शरीरमें फैल कर प्राणनाश करता है। इस | हैं। विविध प्रकारके फोड़े और बड़े बड़े चकत्ते पड प्रकार सात रातके मध्य केवल लूताके तीक्ष्ण विपसे ही जाते हैं। प्राणनाश होता है। जिन सब लूताओंका विप मध्यम- लुताविपकी चियित्सा। वीर्यविशिष्ट होता है, उनके काटनेसे सात रातके वाद त्रिमण्डलाके काटनेसे काटे हुए स्थानसे काला लेह प्राण जाते है। जिनका मन्द विप है उनके काटनेसे | निकलता है, कान वहरे हो जाते, दोनों आँखमें जलन पन्द्रह दिनके भीतर मृत्यु होती है। इन सब कारणोसे ! देती और उसकी शक्ति कमजोर पड़ जाती है। इसमें दंशन अथवा शरीरमे विप घुसते समय यत्नपूर्वक विप- | अमूल, हरिदा, नाकुलो, पृश्निपणिका इन सब स्थानों- नाशक औपयमा प्रयोग करना आवश्यक है। राल, नख, । का नस्य, पान और नटस्थानमें मर्दन करनेसे उपकार मूत्र, दात, रज, पुरीप और शुक्र इन सात प्रकारोंसे लता- होता है। का चिप निकलता है। यह विप तीन प्रकार वीर्यविशिष्ट श्वेताके काटनेसे कण्डयुक्त श्वेतपीड़का, उससे दाह होता है, उग्र, मध्य और मन्द । | मूर्छा और ज्वर होता है। वे सब पोडका फैल जाती और लूनाकी रालसे ये सन लक्षण होते हैं। खुजली होती, । दर्द करती है । जलन भी होती है। इसमें चन्दन, रास्ना, वह स्थान कठिन हो जाता और वहुत कम दर्द करता ! इलायची, रेणुका, नल, अशोक, कुष्ठ, खसकी जड़ २ भाग है। नखके काटनेसे वह स्थान सूज माता और खुजली । और चक्र इन सद द्रव्योंको एक साथ पोस कर प्रलेप होती है। उस स्थानसे अग्निशिखाकी तरह उत्ताप, निक- ; देनेसे बहुत लाभ पहुंचता है।